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ग़ज़लों का मुकम्मल संकलन है: ‘ज़िन्दगी अनुबंध है’

संवैधानिक व वैज्ञानिक चेतना से युक्त सभ्य-समाज की संकल्पना के साकार स्वरूप की वकालत करती हुईं ग़ज़लों का मुकम्मल संकलन है: ‘ज़िन्दगी अनुबंध है’

ग़ज़ल संग्रह: ज़िन्दगी अनुबंध है
ग़ज़लकार: आर.पी.सोनकर ‘तल्ख़ मेहनाजपुरी’
प्रकाशक : विप्लवी प्रकाशन
पृष्ठ संख्या: 148
मूल्य: ₹200/-
स्रोत: ramsonkar1959@gmail.com

आमतौर पर ऐसा ही होता आया रहा है कि ग़ज़लो-शे'रो-शायरी की दुनिया में प्रेम, मोहब्बत, विरह, वेदना वग़ैरह-वग़ैरह को ही हम विषय का केन्द्र मानते, लिखते और पढ़ते आते रहे हैं। हाँ ये बात अलग है कि कुछ नामचीन शायरों में—अदब गोंडवी, मिर्ज़ा ग़ालिब, मीर तक़ी मीर, फ़ैज़ अहमद फ़ैज़, कैफ़ी आज़मी, जिगर मुरादाबादी, शकील बदायुनी, फ़िराक़ गोरखपुरी और दुष्यन्त कुमार आदि ने इससे हटकर एक अलग लकीर खींची और ग़ज़लो-शे'रो-शायरी को एक नये ढाँचे में प्रस्तुत कर; सामाजिक न्याय के लिए कारगर हथियार के रूप में अपनाया और स्थापित किया। इसके बाद के क्रम में इसी तरह कुछ और नाम, जो दौरे-हाज़िर में उल्लेखनीय हैं—मूलचन्द्र सोनकर, तेज सिंह तेज, बी.आर. विप्लवी, रमेश नाचीज़ इत्यादि जो अपने तल्ख़ तेवरो-अन्दाज़ में ज्वलन्त समसामयिकी को उठाते हुए इंक़लाब, हुक़ूक़ और न्याय की बात अपने ग़ज़लो-शे'रो-शायरी में की है। 

साहित्य हमेशा से ही समाज का दर्पण रहा है और आज भी जब अंधविश्वास, पाखण्ड, रूढ़िवादिता, अमानवीयता और वर्चस्ववाद का बोलबाला अपने चरमोत्कर्ष पर है, तो साहित्य ही समाज को सम्यक दिशा-दृष्टि का बोध कराने का कार्य कर रहा है। 

ठीक इसी तरह 148 पृष्ठीय-विस्तार में सिमटी ‘ज़िन्दगी अनुबंध है’ एक ऐसी ही साहित्यिक दस्तावेज़ है, जिसमें समस्त 117 ग़ज़लें, कुछ नज़्में व क़तआत संकलित हैं। 

“यह संग्रह पढ़ते हुए आपके दिलो-दिमाग़ में वैचारिक उथल-पुथल ना हो, ऐसा हो ही नहीं सकता। मेरा यह दावा है कि आदरणीय आर.पी. सोनकर ‘तल्ख़ मेहनाजपुरी’ साहब की ग़ज़लों से गुज़रते हुए आप अपनी ज़िन्दगी के अनुभवों से गुरेज़ नहीं कर सकते। और संयोग से कहीं आप गर फुले-अंबेडकर की विचारधारा के हैं, तो फिर क्या मिसरे-मिसरे पर झूमने वाले हैं।”

“आदरणीय आर.पी. साहब की ग़ज़ल-ओ-शे'रो-शायरी में वो शऊर मौजूद है, जो पारंपरिक अरूज़ की कसौटी पर ग़ज़लियत का विशुद्ध तानाबाना बुनने का कमाल करता है। आर.पी. साहब का अंदाज़े-बयां भी कमाल का है। संग्रह को पढ़ते हुए आप अनायास ही दुःख-दर्द, सामाजिक यथार्थ व यक़ीक़त बयानी की अभिव्यक्ततात्मक तरंगों में झूम उठेंगे। जितने चुटीले व सुरीले पूर्ण अंदाज़ में बड़े ही साफ़गोई के साथ इन्होंने बाह्य-आडंबर, अंधविश्वास, पाखण्ड व धर्म की ख़बर ली है, क़ाबिले-तारीफ़ है।”

आइए ‘तल्ख़’ साहब की ग़ज़लियत पर प्रकाश डालते हुए कुछ शे'रों/शायरी का आनंद उठाएँ: 

01.

शिक्षा की महत्ता को रेखांकित करते हुए ‘तल्ख़’ साहब कहते हैं:

“पढ़ाई से बदल जाती है दुनिया,
समझ में ‘तल्ख़’ आता जा रहा है। 
जिन्हें छूने से था परहेज़ अब तक, 
गले उनको लगाया जा रहा है।”

02.

अंधविश्वास पर चुटकी लेते हुए ‘तल्ख़’ साहब कहते हैं:

“मरने लगी हैं जल के प्रदूषण से मछलियाँ, 
गंगा में रोज़-रोज़ नहाने से बाज़ आ।”

03.

हिन्दू वर्ण-व्यवस्था की मानसिकता को खरी-खोटी सुनाते हुए ‘तल्ख़’ साहब कहते हैं: 

“रहूँ कमतर मगर हिन्दू रहूँ मैं, 
इनायत आपकी कुछ कम नहीं है।”

04.

द्रोणाचार्यों से सावधान करते हुए ‘तल्ख़’ साहब कहते हैं कि:

“अभी भी ज्ञान के बदले जहाँ में, 
अंगूठा काटने वाले बहुत हैं।”

05.
 
तथागत बुद्ध व अंबेडकर साहब से शिक्षा लेते हुए ‘तल्ख़’ साहब कहते हैं कि:

“तथागत बुद्ध से अंबेडकर से ‘तल्ख़’ ने सीखा, 
हमें इंसानियत की राह को पूरनूर करना है।”

06.
 
नारियों के प्रति दोहरी मानसिकता रखने वाले समाज की काली सच्चाई को उजागर करते हुए ‘तल्ख़’ साहब कहते हैं कि:

“यहाँ नारी की गरिमा बस किताबों तक ही सीमित है, 
जलाते हैं बहू घर की, जो कन्या-दान लेते हैं।”

07.
 
सियासत के काले चरित्र को उजागर करते हुए ‘तल्ख़’ साहब कहते हैं कि:

“रोटी-रोज़ी इल्मो-हुनर पर पाबंदी, 
बस मज़हब-मज़हब चिल्लाया जाता है।”

08.

दमित-शोषित वर्ग की दास्य-प्रवृत्ति से ऊबते हुए ‘तल्ख़’ साहब प्रश्न करते हैं कि:

“क्या ग़फ़लत में ही जीना अब तुमने ठान लिया है, 
जागो भी, कब तक सोओगे, कब तक, आख़िर कब तक।”

09.
 
आदमीयत की बात करते हुए है ‘तल्ख़’ साहब कहते हैं कि:

“जौहरी हैं, वफ़ा की समझ है हमें, 
आदमीयत को गहना समझते हैं जी।”

“आदमी में आदमीयत है तो वो इन्सान है, 
है जो मानवता तो छोटा-बड़ा कोई नहीं।”

“खिलौना एक मिट्टी के हैं सब तो फ़र्क़ है कैसा, 
सभी को एक-सा सम्मान, मिल जाये तो मैं जानूँ।”

10.
 
सामाजिक न्याय की दुनिया से दरकिनार कर दिए गए लोगों की बात करते हुए ‘तल्ख़’ साहब कहते हैं कि:

“तल्ख़ नहीं लिखती है, जिनके बारे में दुनिया, 
क्यों न उन्हीं की बात लिखूँ, मैं आजमगढ़ का हूँ।”

11.

सरकारी वादे और दावों की असलियत को उजागर करते हुए ‘तल्ख़’ साहब कहते हैं कि:

“ग़रीब भूखे, किसान भूखे, है आदिवासी की प्यास सूखी, 
वतन का रहबर ये कह रहा है, अनाज से घर भरे-भरे हैं।”

अन्त में बेग़ैर भूमिका के ही निम्न कुछ अश'आर दृष्टव्य हैं:

“सफलता पाँव की है धूल इनके, 
नहीं कम अब किसी से नारियाँहैं।”

“परखना है अगर हमको, तो अवसर भी तो हमको दो, 
शिखण्डी की ही संताने, तो बस होती नहीं क़ाबिल।”

“ख़ून अब बिकने लगें हैं रोटियों के दाम पे, 
ऐसे में क्या लेखनी ख़ामोश रहनी चाहिए।”

“दास्ता की दास्ताँ पढ़ते तो तुम भी जानते, 
दर्द में डूबी हुई, ऐसी कथा कोई नहीं।”

“धर्म, सियासत के पेशे से, 
पेशा कौन यहाँ बेहतर है।”

“हमेशा जो ठगे जाते हैं पण्डों और पुजारी से, 
उन्हीं से क्यों ये भोले लोग, फिर वरदान लेते हैं।”

“किसी के मुँह में है चाँदी का चम्मच, 
निवालों के कहीं लाले बहुत हैं।”

“आपकी ऊँची हवेली ख़ाक में मिल जायेगी, 
बस ज़रा मज़दूर की ताक़त कुचल कर देखिए।”

“चलो माना बुलन्दी पर है तेरे ज़ुल्म का सूरज, 
वहीं ठहरा रहेगा ये, समझना बेवक़ूफ़ी है।”

“बदलता है सब कुछ, है शाश्वत नियम ये, 
कोई रोक ले, ऐसी ताक़त नहीं है। 
ख़ुदा गर समझते हो ख़ुद को समझ लो, 
ये दुनिया तुम्हारी बदौलत नहीं है।”

“हमारी शायरी क्या है, जगा देती है ज़ह्नों को, 
बग़ावत का छुपा तूफ़ाँ, हमारी शायरी में है।”

“पत्थर की माता की पूजा करते हैं, 
अपनी माँ के पाँव में दुःख का छाला क्यों।”

“पाखण्डों के साँपों से जब ख़तरा है, 
तल्ख़ बताओ तुमने घर में पाला क्यों।”

“चुभूँगा शूल-सा तुमको सितमगर, 
न समझो राह में यूँ ही पड़ा हूँ। 
मुझे तुम लाख सूली पर चढ़ाओ, 
मैं अपनी सच बयानी पर अड़ा हूँ।”

“इतना ज़हर भरा है तेरी रग-रग में, 
विषधर तुझको काटेगा पछतायेगा।”

“ज़ुल्मो-सितम की ख़ौफ़ से हथियार डाल कर, 
चुप्पी को ही जवाब समझने लगे हैं लोग।”

“ग़रीब शख़्स करे पेट के लिए चोरी, 
अमीर लूटता है और ऐश करता है।”

“माँएँ हारी हैं जब भूख की जंग में, 
चंद सिक्कों के बदले बिकीं बेटियाॅं। 

“इबादत समझी जाती है मुहब्बत कृष्ण-राधा की, 
करें जो बेटियाँ तो तीरो-तरकश का निशाना है, 
जहाँ देवी बना कर नारियों की पूजा होती है, 
वहीं नारी के शोषण का चलन सदियों पुराना है।”

“अगर मुहब्बत से पेश आएँ, तो तुम मोहब्बत से पेश आना, 
उन्हें न हरगिज़ मुआफ़ करना, जो तुमको नाहक़ सता रहे हैं। 
पहन के पाखण्ड का लबादा, बुतों से हमको डरा-डरा कर, 
चढ़ावा बुत को छुआ-छुआ कर, अकूत दौलत कमा रहे हैं।”

“ताक़ पर रखकर नियम-क़ानून ये कुछ सरफ़िरे, 
अपने-अपने मन की करवाने लगे हैं आजकल‌। 
फिर न बन जाये कोई शासक दलित, पिछड़ा यहाँ, 
मन ही मन वो डर से घबराने लगे हैं आजकल।”

“वोटों के बदले में तू उनसे, गेंहूँ-चावल पा लेगा, 
लेकिन वाजिब हक़ पा लेगा, नामुमकिन-नामुमकिन है।”

“कोई औरत नहीं है देह फ़क़त, 
रूह में झाँकिए शराफ़त से।”

“आग की परवान चढ़ जाती हैं सीता, 
राम हो जाते हैं पुरुषोत्तम यहाँ पर।”

“बुरे कर्मों के फल से तुम बचा सकते नहीं ख़ुद को, 
चढ़ावा दो या ख़ुद को गंगा-जल से ख़ूब नहलाओ।”

“हम मुख़ालिफ़ ज़ुल्म के हैं सर झुका सकते नहीं, 
आप चाहें तो हमारा सर क़लम कर दीजिए।”

“सदा-ए-हक़ उठाना गर बग़ावत है तो सुन ज़ालिम, 
मैं बाग़ी हूँ, लो अपने जुर्म का इक़रार करता हूँ।”

“देश के रहबर हमें परमाणु युग में ले चले,  
भूख, रोटी, मुफ़लिसी अब हाशिए पर आ गयी।”

उपर्युक्त शे'रों/अश'आरों में ‘तल्ख़’ साहब की वैचारिक गहराई, बानगी व व्यंग्यात्मक पुट के साथ तल्ख़ सच्चाई को उद्घाटित करने की कला स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। एक पठनीय और शोधपरक ग़ज़ल संग्रह के लिए मैं ‘तल्ख़’ साहब को बहुत-बहुत बधाई और मंगलकामनाएँ प्रेषित करता हूँ। साथ ही सामाजिक बदलाव के सभी पक्षधर व ग़ज़ल-प्रेमियों से इस महत्त्वपूर्ण संग्रह के पठन-पाठन व प्रचार-प्रसार हेतु आग्रह करता हूँ। उम्मीद है कि यह ग़ज़ल संग्रह वैचारिक क्रान्ति व सामाजिक बदलाव की दिशा में एक कारगर हथियार के रूप में अपना महत्त्वपूर्ण स्थान हासिल करने में अवश्य ही सफल होगा। 

नरेन्द्र सोनकर 'कुमार सोनकरन' नरैना,रोकड़ी,करछना,प्रयागराज (यू.पी.)।
पिन कोड--212307
Email-- naraina2001@gmail.com
सं.सूत्र--8303216841
 

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