सुन शिकारी
काव्य साहित्य | कविता नरेन्द्र सोनकर ‘कुमार सोनकरन’1 Sep 2023 (अंक: 236, प्रथम, 2023 में प्रकाशित)
देख शिकारी
देकर लोभ
बिछाकर जाल
लगाकर घात
करना शिकार
छोड़ दे।
निरपराधों का वध
बेज़ुबानों का वध
असहायों का वध
छोड़ दे।
जमाना रोब
छीनना हक़
खाना मुफ़्त
छोड़ दे।
बदल वेश
संस्कृति-परिवेश
आखेट-कर्म
छोड़ दे।
अन्यथा
तरकश में पड़े बाण
आखेट के नहीं
तुम्हें बेधने के काम आएँगे अब
सुन शिकारी
सुन . . .
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
कविता
- अटल इरादों वाले अटल
- अहम् ब्रह्मास्मि और ग़ुस्सा
- आओ हम आवाज़ दें
- आओ ख़ून करें
- आने दो माघ
- ईश्वर ओम हो जाएगा
- ऐसा क्या है?
- कविता
- जन-नायक
- जय भीम
- जिसे तुम कविता कहते हो
- तुम्हें जब भी देखा
- दाल नहीं गलने दूँगा
- दिल की अभिलाषा
- दिल जमा रहे; महफ़िल जमी रहे
- न जाने क्यूँ?
- पागल, प्रेमी और कवि
- प्रकाश का समुद्र
- प्रेम की पराकाष्ठा
- बड़ी बात है आदमी होना
- बताओ क्या है कविता? . . .
- बसंत की बहार में
- भूख
- माँ
- मानव नहीं दरिंदे हैं हम
- मिलन
- मृत्यु और मोक्ष
- मेरे पाठको मुझे माफ़ करना
- मैं बड़ा मनहूस निकला
- मैं ब्रह्मा के पाँव से जन्मा शूद्र नहीं हूँ
- मैं हूँ मज़दूर
- लड़की हूँ लड़ सकती हूँ
- वह नहीं जानती थी कि वह कौन है?
- सच्चाई का सार देखिए
- सुन शिकारी
- सुनो स्त्रियो
- हिन्दी मैं आभारी हूँ
- क़लम का मतलब
पुस्तक समीक्षा
नज़्म
दोहे
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं