मानव नहीं दरिंदे हैं हम
काव्य साहित्य | कविता नरेन्द्र सोनकर ‘कुमार सोनकरन’15 Sep 2023 (अंक: 237, द्वितीय, 2023 में प्रकाशित)
मानव नहीं दरिंदे हैं हम,
मनबढ़ मस्त परिंदे हैं हम,
प्यास हमारी जिस्मानी है,
हैवानी पर ज़िंदे हैं हम।
मानव नहीं दरिंदे हैं हम।
मनबढ़ मस्त परिंदे हैं हम॥
कहने को बस अपनापन है,
क़त्लेआम रे वहशीपन है,
रोज़-रोज़ का पेशा अपना,
कहने को शर्मिन्दे हैं हम।
मानव नहीं दरिंदे हैं हम।
मनबढ़ मस्त परिंदे हैं हम॥
हवस के भूखे-प्यासे कि
गिद्ध-सा नोंचे लाशें कि
बहन-बेटियाँ जीएँ कैसे
इतने अच्छे गंदे हैं हम।
मानव नहीं दरिंदे हैं हम।
मनबढ़ मस्त परिंदे हैं हम॥
स्त्री करे पुरुष का पोषण
पुरुष करे स्त्री का शोषण
कौन मुखर हो इस मुद्दे पर
गूँगे, बहरे, अंधे हैं हम।
मानव नहीं दरिंदे हैं हम।
मनबढ़ मस्त परिंदे हैं हम॥
पेड़-फूल परमार्थ वास्ते
खोल दिए कितने ही रास्ते
हमसे अच्छे पशु-पक्षी हैं
पाप-कर्म के बन्दे हैं हम।
मानव नहीं दरिंदे हैं हम।
मनबढ़ मस्त परिंदे हैं हम॥
अपनी माँ ही माँ लगती है
और कोई चुम्मा लगती है
ऐसी है मानसिकता अपनी
भारत के बाशिंदे हैं हम।
मानव नहीं दरिंदे हैं हम।
मनबढ़ मस्त परिंदे हैं हम॥
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