न जाने क्यूँ?
काव्य साहित्य | कविता नरेन्द्र सोनकर ‘कुमार सोनकरन’15 Feb 2024 (अंक: 247, द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)
आज भी जब
निकलता हूँ ब्राह्मणों की गली में
तो अनायास ही
खड़े हो जाते हैं कान
चौकस मुद्रा में
और चारों ओर दौड़ती हुईं अपलक
आकार में बड़ी हो जाती हैं ऑंखें
भौंहें तन जाती हैं
फूलने लगते हैं हाथ-पाँव
और रगों में
चोट-कचोट की मिश्रित उबाल के साथ
बहने लगता है लहू
धमनियाँ दहक उठती हैं
न जाने क्यूँ? . . .
न जाने क्यूँ?
रोम रोम आक्रोशित हो उठता है
जाग उठता है ज्वालामुखी
फूट उठता है लावा
क्रान्ति का स्वर
विद्रोह का बिगुल
ऐसी जगहों से गुज़रते हुए
मेरे भीतर
तत्क्षण।
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