हाँ मैं दोषी कहलाता हूँ
काव्य साहित्य | गीत-नवगीत संदीप कुमार तिवारी ‘श्रेयस’15 Feb 2021 (अंक: 175, द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)
उठकर प्रातः बाग़ों में मैं सूरज की किरणों से मिलता
हर फूल का हाल पूछता जो भी नया बाग़ में खिलता
जुड़ जाता हूँ मैं उससे जो मेरा विषय होता है
गुनगुनाने से मैं कौन हूँ, सबसे मेरा परिचय होता है
कभी ख़ुद के गीत से ख़ुद का मन बहलाता हूँ
मैं भँवरा नित नये फूलों के गाल सहलाता हूँ
हाँ मैं दोषी कहलाता हूँ!
हर पल, हर दिन मुझे नए फूल पे नया अनुभव होता है
एक जगह टिककर रहने में व्यक्ति विस्मित होता है
मैं नए क़िस्से-कहानी और किंवदंतियों से मिल
हाँ नए शब्द चुन लाता हूँ मैं नयी पंक्तियों से मिल
फिर इक नयी कविता रच, पढ़ता बल खाता हूँ
इस तरह ख़ुद की गिनती सौ बार दहलाता हूँ
हाँ मैं दोषी कहलाता हूँ!
हर साल की शीत बसंत में सारगर्भित हो जाता मैं
मधुमास की अमराई में नये किसलय पे बल खाता मैं
हर साल मोह का झालर बुन नए मोह में फँस जाता
फिर हर बार ठोकर खाता फिर हर बार डट जाता
दिन की तरह उगता शाम की तरह ढल जाता हूँ
अपने ही अश्रुजल से अपने आप को नहलाता हूँ
हाँ मैं दोषी कहलाता हूँ!
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