दर्पण
काव्य साहित्य | कविता संदीप कुमार तिवारी ‘श्रेयस’15 Aug 2023 (अंक: 235, द्वितीय, 2023 में प्रकाशित)
कृपया पढ़ते हुए जाइएगा
कुछ बाक़ी रह गया तो ज़रूर बताइएगा
ख़ामोशी हर रूह की तड़पन है
मेरी कविता, कविता नहीं दर्पण है
बिना दरवाज़े के कमरे में बंद खिड़की है
मैं और मेरी लुगाई एक लड़का चार लड़की हैं
कुछ इस तरह से मुझसे क़िस्मत भड़की है
घर की ख़ाली है डेहरी जेब कड़की है
घर की रोशनायी से अँधेरों का आगमन,
बदली धूप खा गई।
कल शाम बुआ भी
अपने चार बच्चों को लेकर घर आ गई।
देश तरक़्क़ी में है, बात एक किसान की।
बात कुछ नहीं बस इतनी सी है कि
अपनी ग़रीबी दूर होते ही
पूरे देश की ग़रीबी दूर हो जाती है,
शायद इसलिए ग़रीबी कभी ख़त्म नहीं हुई।
किसी ने सच ही कहा है, दान देने से ग़रीबी नहीं जाती
अपना हक़ माँगने से जाती है।
जेठ के महीने में जब चिमनियों से निकलता है धुआँ
कभी उसके नज़दीक जाइए,
पीठ पे टाँगें हुए बच्चे को माँ, ईंट ढो रही होती है
और जो बच्चे चल सकते हैं,
अपनी अपनी औक़ात के हिसाब से
माँ का हाथ बँटाते हैं।
इधर सरकार अभियान चलाती है
चौदह वर्ष से कम उम्र के बच्चो से
काम कराना क़ानूनन ज़ुर्म है।
ऊधर सेल टेक्स के ऑफ़िस में
बड़ा-बाबू टेबल के नीचे से माल खाते हैं।
कमाल है! उधर उनके बच्चे फोरव्हीलर से
पढ़ने स्कूल जाते हैं।
इधर ग़रीब के बच्चे चिमनियों वाले कारखानों में,
अपने काँधे पे अपनी लाश उठाते हैं।
इधर फ़ुटपाथ पे लोग जूठन खा रहे
उधर टोपी वाले अपने घर में करोड़ों के
टाइल्स-मार्बल लगा रहे
हर डिब्बे में धक्कम-पेल है
लोग खड़े हो के ऑफ़िस जा रहे
फिर भी हर साल रेलवे में घाटे आ रहे
देश तरक़्क़ी में है!
हर रिश्ता एक सौदा है, समझौता है
ख़ूबसूरत मुस्कान लिए झूठ का मुखौटा है।
लंबा दिन, रात भारी लगे
जैसे सीने से आ कोई कटारी लगे
जैसे किसी बुज़ुर्ग की बात आरी लगे
जैसे मुरझाई हुई आम्र की डारी लगे
काँटों भरी फूलों की क्यारी लगे
ज़िंदगी में यूँ बेरोज़गारी लगे
जैसे किसी कुँवारी कन्या के पाँव भारी लगे
उसके चौखट पे मत्था टेक आए
न जाने क्या समझता है
जब से टोपी चढ़ी है सर पे,
ख़ुद को देवता समझता है।
ख़ुशियों को कैसे हासिल किया जाता है
अगर नहीं जानते तो आप नासमझ हैं।
बता दूँ क्या?
बंद कमरे में किसी औरत की
कलाई मरोड़ने में ख़ुशी मिलती है।
किसी मज़दूर के गमछे से
अपना पसीना सुखाने में ख़ुशी मिलती है।
सरकारी अस्पताल में
दान किए गए ख़ून को
ब्लैक में बेचने में ख़ुशी मिलती है।
फ़ुटपाथ पे किसी फल के दुकान में
फल चख के छोड़ देने में ख़ुशी मिलती है।
घर का ग़ुस्सा दफ़्तर के किसी जूनियर पे
निकालने में ख़ुशी मिलती है।
ख़ुशी मिलती है बीवी के मैके जाने में
ख़ुशी मिलती है परायी स्त्री को गले लगाने में
ख़ुशी मिलती है किसी माफ़िया से हाथ मिलाने में
ख़ुशी मिलती है छप्पर वाले पड़ोसी के बग़ल में बिल्डिंग बनाने में।
ख़ुशी मिलती है किसी ग़रीब का मज़ाक उड़ाने में।
जितने अच्छे रुपयों के लेनदेन होते हैं;
उतने अच्छे जोड़े तैयार होते हैं।
इस दुनिया में मोल-भाव जीवन का सार रहा है।
साँठ-गाँठ बैठानी है रिश्तों की तो पैसा ज़रूरी है
लड़की को तो रिश्ता पसंद करना मजबूरी है।
एक बार दहेज़ का समझौता हो गया बस बात पक्की।
ना लड़के से कोई सुझाव न लड़की की पसंद जानी जाती है।
हाँ भले ही शादी के बाद लड़का
पड़ोस की किसी एश्वर्या राय को पसंद कर सकता है
और लड़की किसी सलमान खान को।
हमने देखा आज भी गाँव में अपनी
मूँछों की शान लोग ऐसे ही रखते हैं।
इंसान का रिश्ता भी बाज़ारू सौदे से कम नहीं,
ख़ैर अपनी अपनी सोच!
जिस तरह पैसा देकर वोट लिया हुआ नेता
जनता का स्वागत करता है
ठीक उसी तरह दहेज़ लेकर लाई गयी बहू भी
अपनी सास की ख़ातिरदारी करती।
ग़लत कुछ नहीं सब जायज़ है।
यही है समाज का 'दर्पण'।
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