बढ़ते चलो
काव्य साहित्य | कविता संदीप कुमार तिवारी ‘श्रेयस’1 Jan 2022 (अंक: 196, प्रथम, 2022 में प्रकाशित)
अश्रुजल में डूब जाना स्वभाव है शरीर का
मन से पर भयभीत ना हो भाव है फ़क़ीर का
इस जगत में कौन है तेरा कि तुझको मिले,
आईने के सामने ख़ुद को खड़ा हो देख ले।
कर तू कोई फ़ैसला, अडिग रह तत्पर भी रह,
विष है जीवन, शाप है, पी जा इसे हर दर्द सह।
स्वक्ष और प्रत्यक्ष लक्ष्य भेद एक गढ़ के चलो,
आँधियाँ आएँगी पथ में तुम मगर बढ़ते चलो।
कुछ रुष्ट वेदनायें भी मिलती ही हैं दुःख के लिये
पर ये भी सच है ख़ुश रहोगे तुम मगर किसके लिये
हर बाग़ का भी फूल खिल के यहाँ मुरझाएगा,
जो भी मिलेगा सोच लो एक दिन यहाँ छिन जाएगा।
तू पेड़ बन स्वभाव से, कटते भी जा, फलते भी जा,
चलना ही तेरा काम है, चलते ही जा, चलते ही जा।
हाँ इस धरा पे पर्वत तो अनेक हैं, चढ़ते चलो!
आँधियाँ आएँगी पथ में तुम मगर बढ़ते चलो।
सब कुछ भरम है ज़िंदगी फिर भी ख़ुशी से जी ले तू
कोई नहीं तो ख़ुद की चादर ख़ुद यहाँ पे सी ले तू
हो मौन तू चुपचाप देख इस जगत की रीत को,
अंदर है कुछ बाहर है कुछ इस सच्ची झूठी प्रीत को।
हर शख़्स से मिल ले यहाँ हर शख़्स को तू जान ले,
सब धूल से भरे हुए चेहरे यहाँ पहचान ले।
ना समझ आए तो भी हर ख़बर पढ़ते चलो,
आँधियाँ आएँगी पथ में तुम मगर बढ़ते चलो।
जंग ही स्वभाव है, जीने का भी मरने का भी
बहते रहना वेग है, नदी का भी, झरने का भी
जागती आँखों से जो कुछ दिख रहा सब सपना है,
बदलते रहना यहाँ सृष्टि की हर रचना है।
प्रकृति की हर शै को देख, चलता समय रुकता नहीं,
सावन में अंबर रोता तो है पर कभी झुकता नहीं।
बाधा सम्मुख पहाड़ बन अड़ते चलो लड़ते चलो,
आँधियाँ आएँगी पथ में तुम मगर बढ़ते चलो।
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