मैं हार नहीं मानूँगा
काव्य साहित्य | कविता संदीप कुमार तिवारी ‘श्रेयस’1 Sep 2020 (अंक: 163, प्रथम, 2020 में प्रकाशित)
यह जीवन ही है विलक्षण
हर पल, हर दिन, प्रति क्षण
यहाँ आशा और निराशा में
मैं ख़ुद को करूँगा अर्पण
अब दुःख की विवेचना नहीं
बस अब कोई याचना नहीं
हाँ, कोई कार्य सहज नहीं
पर मैं भी कोई 'महज़' नहीं
अब काँटे हों चाहे फूल हों
जो भी मिले, सब क़ुबूल हो
संशय-विस्मय में लक्ष्य नहीं त्यागूँगा!
बस! मैं अब कभी हार नहीं मानूँगा ।
कुछ नहीं तो कुछ ही सही
रहना मुझे अब क्षुब्ध नहीं
मंज़िल नहीं तो आस तो है
एक उम्मीद भी पास तो है
समुद्र का भी तो किनारा है
यहाँ पहले ही कौन हारा है!
सबकुछ अपने पास होगा
ख़ुद पे जब विश्वास होगा
हौसला जिसके अंदर है
बस वही आज सिकंदर है
डूबकर दरिया, तेरी गहराई जानूँगा!
पर! मैं अब कभी हार नहीं मानूँगा।
हम जिनके पाले पड़ते हैं
वो बंद किवाड़ पड़ते है
बेरहम ज़िंदगी के रास्तों में
यहाँ बहुत ढलान पड़ते हैं
थक जाते हैं पाँव अभागे
जाने कितने नाले पड़ते हैं
आँख भर के रूह सिसकती है
गले में घुटन,जीभ में छाले पड़ते हैं
घर में सौ दफ़ा आँच जलती है
तब जा के मुँह में निवाले पड़ते हैं
किन्तु मैं आँच से जल के नहीं भागूँगा।
बस! अब मैं कभी हार नहीं मानूँगा।
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