स्त्री (संदीप कुमार तिवारी)
काव्य साहित्य | कविता संदीप कुमार तिवारी ‘श्रेयस’1 Apr 2020 (अंक: 153, प्रथम, 2020 में प्रकाशित)
स्त्री! क्या तुम सिर्फ़ स्त्री हो?
इतनी पावन पवित्र पुनिता कौन थी?
स्त्री! तुम सिर्फ़ स्त्री हो तो सीता कौन थी?
गर तुम सोयी हो तो मैं तुम्हें जगाऊँ
आओ मैं तुमसे तुम्हारा परिचय कराऊँ
तुम धरती हो संसार धारी हो
तुम एक शक्तिवान नारी हो
विश्व जननी तुम में जगत व्याप्त है
स्त्री! तुम बिन जीवन अपर्याप्त है
स्त्री! क्या तुम सिर्फ़ स्त्री हो तो?
स्त्री! तुम सिर्फ़ स्त्री हो तो
अनसूया माई कौन थी?
स्त्री! तुम सिर्फ़ स्त्री हो तो
अहिल्याबाई कौन थी?
तुम लक्ष्मी हो, दुर्गा हो, सरस्वती हो
तुम किसी ग़रीब की सौभाग्यवती हो
स्त्री! तुम जन्म देनेवाली जाई हो
स्त्री तुम्हें पता! तुम्ही द्वारकामाई हो
स्त्री! क्या तुम सिर्फ़ स्त्री हो?
ये जीवन तो, वैसे भी कशमकश लगता है
पर, "स्त्री! तुम बिन बिलकुल नीरस लगता है
तुम्हें भ्रम है कि हम ख़ुद में मग्न हैं
पर, "स्त्री! हम तुम्हारे एहसानमंद हैं"
हम नासमझ निस्सहाय आयें जब इस लोक में
तब तुम्हीं ने हमें सँभाला था -
नौ महीने तक कोख में
स्त्री! क्या तुम सिर्फ़ स्त्री हो?
तुम हर पुरुष का सुंदर सपना हो
स्त्री! तुम्हीं भाव तुम्हीं कल्पना हो
स्त्री! तुम जीवन की आशा हो
स्त्री! तुम प्रेम कि परिभाषा हो
तुम सबसे पवित्र गंगा का भेष हो
स्त्री! तुम हम सब में समावेश हो
स्त्री! तो क्या तुम सिर्फ़ स्त्री हो?
स्त्री! तुम सबलों में सबला हो
कौन कहता है तुम अबला हो
अपनी सारी कमज़ोरियों को त्यागो स्त्री
जागो स्त्री! जागो स्त्री! जागो स्त्री!
फिर से जागो स्वाभिमानी बनो
फिर से झाँसी वाली रानी बनो
स्त्री! क्या तुम सिर्फ़ स्त्री हो?
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