नमक बेईमानी का
कथा साहित्य अजय अमिताभ 'सुमन'1 Feb 2019
अरोड़ा साहब का कपड़ों के इंपोर्ट और एक्सपोर्ट का दिल्ली में बहुत बड़ा कारोबार था। अक्सर वो चीन के व्यापारियों से संपर्क करके उनसे कपड़ों के एक्सपोर्ट का आर्डर लेते, फिर अपनी फ़ैक्ट्री में कपड़ों को बनवा कर चीन भेज देते। इस काम में अरोड़ा साहब को बहुत मुनाफ़ा होता था। उनकी इंपोर्ट और एक्सपोर्ट डिपार्टमेंट में बहुत बड़ी पहुँच थी। अरोड़ा साहब इस बात का बराबर ख़्याल रखते कि दिवाली या नए वर्ष के समय एक्सपोर्ट डिपार्टमेंट के सरकारी कर्मचारियों के पास बख़्शीश समय पर पहुँच जाए। ये अरोड़ा साहब की दिलदारी का ही प्रभाव था कि उनकी एक कॉल के आते ही सरकारी कर्मचारी उनकी फ़ाइल को आगे बढ़ा देते थे। इस कारण से अरोड़ा साहब अपने बिज़नेस में काफ़ी आगे निकल गये। उनके आगे बढ़ने में कुछ विश्वस्त कर्मचारियों का भी बहुत बड़ा योगदान था। उनका मैनेजर नीरज और क्लर्क सुभाष उनके प्रति बहुत ही वफ़ादार थे। अरोड़ा साहब भी अपने मैनेजर नीरज और अपने क्लर्क सुभाष पर बहुत विश्वास करते थे।
यह बात जगज़ाहिर है कि जब भी कोई व्यापारी अपने व्यापार में आगे बढ़ना चाहता है कुछ ग़ैर क़ानूनी तरीक़ों का इस्तेमाल करना पड़ता है। अरोड़ा साहब की प्रगति से यह बात तो बिल्कुल साफ़ थी कि अरोड़ा साहब भी कुछ ग़ैर क़ानूनी तौर तरीक़ों का इस्तेमाल करते थे। इंपोर्ट एक्सपोर्ट डिपार्टमेंट में इस बात का बराबर ध्यान रखा जाता था कि किसी एक व्यापारी की धाक न चले। सरकार की तरफ़ से इस बात का दिशा निर्देश दिया जाता था कि सारे व्यापारियों को बराबर का मौक़ा मिले। इधर अरोड़ा साहब अपनी पहुँच का इस्तेमाल अपनी सारी फ़ाइलों को आगे बढ़ाने में बराबर कर रहे थे। जब भी उनकी एक फ़ाईल आगे बढ़ जाती तो अपनी बाक़ी और फ़ाइलों को अपनी आगे बढ़ी हुई फ़ाईल के साथ लगवा देते। इस तरीक़े से एक ही बार में बहुत सारा काम करवा लेते।
अपनी इस तरह की क्रिया-पद्धति का इस्तेमाल करते हुए और अरोड़ा साहब ने अपने बिज़नेस को बहुत ज़्यादा फैला लिया। इसका नतीजा यह हुआ कि कपड़ों के व्यवसाय में उनके जितने भी प्रतिस्पर्धी थे, उनको अरोड़ा साहब से जलन होने लगी। अरोड़ा साहब के प्रतिस्पर्धियों ने एक्सपोर्ट इम्पोर्ट डिपार्टमेंट में कंप्लेंट कर दी। अरोड़ा साहब के प्रतिस्पर्धियों ने यह तर्क दिया कि एक बार में दस-बारह फ़ाइलें इकट्ठे आगे कराकर अरोड़ा साहब ग़ैरक़ानूनी काम कर रहे हैं। साहब के लिए मुश्किल की घड़ी आ गई। किसी ने अरोड़ा साहब को बताया कि कोई एक सरकारी नोटिफ़िकेशन है, जिसके हिसाब से यदि कोई संबंधित फ़ाइलें हैं तो उन सारी संबंधित फ़ाइलों को इकट्ठे लगाया जा सकता है। लेकिन मुश्किल बात यह थी कि वह नोटिफ़िकेशन लगभग पन्द्रह साल पहले आई थी। वो कब आई थी, इसका पता लगाना मुश्किल था। अरोड़ा साहब के लिए उस नोटिफ़िकेशन का मिलना बहुत ज़रूरी था, लेकिन ये काम था बहुत कठिन। ख़ैर इस काम को किसी भी हाल में होना ही था। अरोड़ा साहब को नीरज और सुभाष पर बहुत भरोसा था। उन्होंने अपने इस काम के लिए अपने मैनेजर नीरज और अपने क्लर्क सुभाष को लगाया। अरोड़ा साहब ने उन दोनों को काफ़ी हिदायत दी यह बात किसी को भी मालूम नहीं चलनी चाहिए।
ये नीरज और सुभाष के लिए भी परीक्षा की घड़ी थी। सवाल ये था कि काम की शुरूआत कैसे की जाए? वह नोटिफ़िकेशन जो कि लगभग पन्द्रह साल पहले आया था, उसके बारे में तहक़ीक़ात कैसे की जाए? उन दोनों ने दिमाग़ लगाया। सबसे पहले रिकॉर्ड रूम जाकर जितनी फ़ाइलें सरकारी डिपार्टमेंट में थी, उसकी तहक़ीक़ात शुरू करनी चाहिए। नीरज में जाकर रिकॉर्ड रूम के इंचार्ज से उस नोटिफ़िकेशन के बारे में पूछा। रिकॉर्ड रूम के इंचार्ज ने कहा कि तक़रीबन सात साल पहले की सारी फ़ाइलें और नोटिफ़िकेशन यहाँ से हटा दी जाती हैं। रिकॉर्ड रूम के इंचार्ज अहमद ने कहा कि आप जाकर फ़ाइलिंग डिपार्टमेंट में पता कीजिए वहाँ पर हो सकता है कि आप तो कोई जानकारी मिल सके।
नीरज के पास कोई और उपाय नहीं था। वह फ़ाइलिंग डिपार्टमेंट में गया। वहाँ जाने पर पता चला कि फ़ाइलिंग डिपार्टमेंट का इंचार्ज अभी तक आया नहीं है। तक़रीबन दिन के 11:30 बज गए थे और उस समय भी फ़ाइलिंग डिपार्टमेंट का इंचार्ज नहीं आया था। सुभाष ने कहा, “साहब इस डिपार्टमेंट का हाल भी हमारे ऑफ़िस के महेश जैसा है।”
नीरज भी हँसने लगा। उसके ऑफ़िस में महेश कभी भी 11:00 बजे से पहले नहीं आता था। नीरज ने खिसियाती हुई हँसी में कहा, “भाई महेश जैसे आदमी केवल हमारे ऑफ़िस में ही नहीं बल्कि हर जगह है। कामचोर लोगों की कोई कमी नहीं है। ख़ैर अब काम आगे कैसे किया जाए?”
सुभाष ने नीरज को सलाह दी कि फ़ाइलिंग डिपार्टमेंट के किसी और क्लर्क से बातचीत की जाए। उन दोनों के पास कोई और उपाय नहीं था। वह दोनों फ़ाइलिंग डिपार्टमेंट में दूसरे क्लर्क के पास गए और अपनी समस्या के बारे में बताया। उस क्लर्क ने कहा कि आप जो भी समस्या लेकर आए हैं उसका समाधान तो फ़ाइलिंग डिपार्टमेंट में नहीं है। आपको लिस्टिंग डिपार्टमेंट में जाना चाहिए।
नीरज और सुभाष के सामने आशा की किरणें क्षीण होती जा रहीं थीं। वह दोनों लिस्टिंग डिपार्टमेंट में गए। वहाँ पर जाकर तक़रीबन पन्द्रह साल पहले आए नोटिफ़िकेशन के बारे में पूछताछ की। वहाँ पर उन लोगों को यह ज्ञात हुआ कि रिकॉर्ड डिपार्टमेंट में ही आदिल नाम का बहुत पुराना मुलाज़िम है। वह आदिल ही उनकी सहायता कर सकता है।
दोनों वापस फिर रिकॉर्ड रूम में गए। उस रिकॉर्ड रूम में फ़ाइलों के ढेर के पीछे आदिल मिला। आदिल से उन लोगों ने तक़रीबन पन्द्रह साल पहले नोटिफ़िकेशन के बारे में पूछा। आदिल ने कहा कि वह यहाँ पर लगभग बारह साल से है। इस कारण से वह उन फ़ाइलों के बारे में तो नहीं बता सकता है। हाँ, इतना तो ज़रूर बता सकता है कि वह फ़ाइलें लिस्टिंग ब्रांच में ही हो सकती हैं। आदिल ने बताया कि लिस्टिंग ब्रांच में ही इंटरनेट की नया ब्रांच खुली है। इंटरनेट ब्रांच में जितनी भी बंद हो चुकी फ़ाइलें हैं, उनका साइबर रिकॉर्ड मौजूद है।
दोनों के सामने आशा की किरणें दिखाई पड़ने लगीं। दोनों जाकर लिस्टिंग ब्रांच के साइबर सेल के बारे में तहक़ीक़ात करने लगे। साइबर सेल की ब्रांच दूसरी बिल्डिंग में थी। सुभाष को रास्ता पता था। सुभाष के पीछे-पीछे नीरज चलने लगा। वहाँ पर जाकर गेटकीपर ने बताया कि साइबर सेल तीसरी मंज़िल पर है। नीरज जाकर तीसरी मंज़िल पर साइबर सेल के बारे में पता किया, वहाँ पर ज्ञात हुआ कि वह दूसरी मंज़िल पर है। नीरज और सुभाष काफ़ी चिढ़ गए थे। ख़ैर जब दोनों दूसरी मंज़िल पर गए और साइबर सेल के बारे में तहक़ीक़ात की तो वहाँ पर एक महिला कर्मचारी मिली। उस महिला ने दुपट्टा नहीं डाल रखा था। उसके कपड़ों के नीचे से उसका सारा बदन दिख रहा था। उस महिला कर्मचारी ने नीरज और सुभाष को बताया कि तीसरी मंज़िल पर ही पिछली साइड में छोटा सा साइबर सेल खुला है; आप वहाँ जाकर तहक़ीक़ात कर सकते हैं। नीरज और सुभाष को ऐसा लगने लगा था कि शायद उन्हें वह नोटिफ़िकेशन मिल नहीं पाएगा। उस पर, उस महिला कर्मचारी की निर्लज्जता ने दोनों को और परेशान कर दिया। पता नहीं क्यों इन सरकारी डिपार्टमेंट में कोड ऑफ़ ड्रेस नहीं हैं। इस तरह तो मर्दों के ध्यान काम पर क्या ख़ाक लगेगा? वो तो इन मैडम लोगों को निहारने में ही लगे रहेंगे। सुभाष भी खिन्न हो चुका था। उसने खीजते हुए कहा, “हम इतनी कोशिश कर रहे हैं फिर भी कुछ पता नहीं चल पा रहा है। किस तरह का डिपार्टमेंट है ये? किसी को ठीक से पता ही नहीं है नोटिफ़िकेशन के बारे में? सारे के सारे लोगों का ध्यान तो बदन दिखाने और बदन निहारने में ही लगा हुआ है। काम पे ध्यान क्या ख़ाक लगेगा। पता नहीं किसी को नोटिफ़िकेशन के बारे जानकारी है भी या नहीं?”
हताश हुए सुभाष को ढाढ़स बढ़ाते हुए नीरज ने कहा, “कोई बात नहीं, हमारे हाथ में तो कर्म ही हैं। हम अपनी तरफ़ से पूरी कोशिश ही कर सकते हैं। इतनी कोशिश कर ली, तो चल के बाहर ऊपर भी देख लेते हैं।”
जब नीरज और सुभाष तीसरी मंज़िल की पिछली साइड में गए तो वहाँ दरवाज़े बंद मिले। निराशा के बादल दोनों के सामने छाने लगे। दोनों लौट ही रहे थे कि सुभाष की जान-पहचान का कोई दूसरा क्लर्क मिला। उसने बताया कि अभी तीन दिन पहले यह डिपार्टमेंट यहाँ से हटकर छठी मंज़िल पर चला गया है। आप दोनों को वहाँ जाना पड़ेगा।
नीरज और सुभाष काफ़ी थक गए थे। दोनों ने नीचे आकर गरम-गरम चाय पी फिर छठी मंज़िल पर गए। छठी मंज़िल पे एक छोटा सा कमरा था और उस कमरे में एक पुरुष और दो महिला कर्मचारी मिले। नीरज ने उनसे नोटिफ़िकेशन के बारे में पूछा तो उन लोगों ने बताया आप बिल्कुल ठीक जगह आए हैं। लेकिन यहाँ पे सारे के सारे रिकॉर्ड हैं कहाँ? सारी फ़ाइलों को लाइब्रेरी भेज दिया है।
इतनी ज़्यादा दौड़ धूप से नीरज और सुभाष परेशान हो चुके थे। उन्होंने नीचे आकर फिर गरमा-गरम चाय पी, समोसा खाया, और पहुँच गए लाइब्रेरी में। वहाँ पर दोनों नोटिफ़िकेशन के बारे में बता कर पता करने लगे। जब लाइब्रेरियन से नोटिफ़िकेशन के बारे में पूछा तो वहाँ बताया गया कि जितने भी पुराने नोटिफ़िकेशन है उसका प्रिंट आउट अब यहाँ से हटा दिया गया है और वो सारे के सारे प्रिंट आउट नई ब्रांच के कंप्यूटर सेल में मिलेंगे।
नीरज और सुभाष दोनों को ग़ुस्सा आने लगा। पता नहीं ये किसने अरोड़ा साहब को नोटिफ़िकेशन के बारे में बता दिया। नोटिफ़िकेशन तो जैसे सुरसा का मुँह हो गया था। ख़त्म होने का नाम ही नहीं ले रहा था। इधर इतनी दौड़-धूप से परेशान सुभाष ने कहा, “अब रहने देते हैं, कल कोशिश करेंगे।”
नीरज ने झिड़क कर कहा, “नहीं चलो अभी।”
सुभाष आराम करने लगा। नीरज ने कहा, “इतने दिनों से तुम यहाँ आते-जाते हो, कोई जान-पहचान भी नहीं है क्या?”
तिस पर सुभाष ने कहा, “रोज़ का आना-जाना तो आपका भी यहाँ लगा रहता है। आप ही जान-पहचान निकाल लो ना। उस पर से आपकी तरह मुझे सैलरी भी तो समय पर नहीं मिलती। दिया तो उतना ही जलेगा जितना की उसमें तेल पड़ा हो।”
आपसी नोक-झोंक और ऊपर-नीचे करते हुए दोनी काफ़ी थक चुके थे। धीरे-धीरे चलते हुए लाइब्रेरी के सेकंड फ़्लोर पर पहुँचे और वहाँ पर जाकर उन लोगों ने उस नोटिफ़िकेशन के बारे में पूछताछ की। वहाँ पर उन्हें बताया गया कि यहाँ पर तक़रीबन चालीस साल से पहले की सारी नोटिफ़िकेशन की डिजिटल कॉपी मौजूद है। उसने नीरज को वहाँ पर एक कंप्यूटर के सामने बैठा दिया और कहा कि वह इन नोटिफ़िकेशन की छानबीन कर सकता है।
नीरज के साथ वहाँ पर सुभाष भी बैठ गया। पर कंप्यूटर सेल के इंचार्ज ने सुभाष को वहाँ पर बैठने से मना कर दिया। उसने कहा कि यहाँ पर केवल नीरज बैठ सकता है; यहाँ पर क्लर्क नहीं बैठ सकते। नीरज के सामने बहुत बड़ी समस्या थी। उन चालीस साल की सारी फ़ाइलों, नोटिफ़िकेशन में से एक नोटिफ़िकेशन को निकालना। यानी कि लगभग 600-700 फ़ाइलों में से किसी एक फ़ाइल में पड़े एक नोटिफ़िकेशन को पढ़ना। यह कैसे हो?
नीरज ने हिम्मत नहीं हारी और उसने अपना दिमाग़ लगाया। उसे यह बताया गया था कि तक़रीबन पन्द्रह साल पहले की फ़ाइलों में इस तरह की नोटिफ़िकेशन आई थी। नीरज ने दसा साल पहले की फ़ाइलों को पढ़ना शुरू किया। और तक़रीबन तीन साल पीछे जाते ही उसको वह नोटिफ़िकेशन मिल गया। मेहनत तो काफ़ी करनी पड़ी, पर इस बात से दोनों को बहुत ख़ुशी हुई कि उनकी मेहनत सफल हुई।
नीरज ने तुरंत ही उस नोटिफ़िकेशन की कॉपी ली और अपने मोबाइल से उसकी फोटो खींच ली। जैसे ही नीरज ने उस नोटिफ़िकेशन को अपने व्हाट्सऐप्प से अरोड़ा साहब के मोबाइल पर भेजना चाहा, सुभाष ने उसे ऐसा करने से रोक लिया। सुभाष ने कहा कि यह बात काफ़ी गुप्त है। यदि व्हाट्सऐप्प पर किसी और ने देख लिया तो समस्या खड़ी हो सकती है। नीरज ने सुभाष की बात मान ली।
सुभाष ने अरोड़ा साहब के मोबाइल पर फोन किया तो उस फोन को अरोड़ा साहब के सेक्रेटरी दीपक ने रिसीव किया। सुभाष ने दीपक से कहा कि एक बहुत ही ज़रूरी मैसेज है, अरोड़ा साहब को बताना है। दीपक ने पूछा, "क्या है मैसेज?"
सुभाष ने मैसेज बताने से मना कर दिया। सुभाष को इस समय अपने आप पर काफ़ी अभिमान आ रहा था। दरअसल दीपक साहब का सेक्रेटरी था और इस बात का उसे हमेशा घमंड रहता था कि जितनी भी गुप्त बातें थीं; वो उन सारी बातों को वह जानता था। कितनी ही बार उसने सुभाष को झिड़क दिया था। लेकिन इस बार पासा सुभाष के हाथ में था। दीपक बार-बार पूछ रहा था सुभाष से, लेकिन सुभाष ने कहा, “जाकर साहब से कहो कि वह नोटिफ़िकेशन मिल गया है।”
दीपक को ये बात समझ में नहीं आ रही थी कि आख़िर में वह कौन सा नोटिफ़िकेशन है जिसके बारे में सुभाष को पता है और उसे पता नहीं है? सेक्रेटरी और क्लर्क के बीच जंग चल रहा था। जंग में हमेशा जीतने का आदी रहा सेक्रेटरी इस अनपेक्षित हार से परेशान और दुखी हो चला। इधर हमेशा पराजित होने वाला क्लर्क जीत के इस मौक़े को अपने हाथ से जाने नहीं देना चाहता था। अंत में जीत सुभाष की हुई। दीपक ने सुभाष की बात को और अरोड़ा साहब तक पहुँचा दिया।
अब पासा सुभाष के हाथों में था। उसने नीरज से कहा कि आप यह मत बताइएगा कि कंप्यूटर से नोटिफ़िकेशन को निकाला है। सुभाष ने नीरज से कहा कि आप यह बता दीजिएगा कि उस नोटिफ़िकेशन को सुभाष ने बहुत सारी फ़ाइलों को छानबीन करके, पैसा खिला कर निकाला है। दरअसल इस मौक़े का इस्तेमाल सुभाष कुछ पैसे कमाने के लिए करना चाह रहा था। नीरज बहुत ही ईमानदार आदमी था। उसने ऐसा करने से मना कर दिया। नीरज ने कहा कि यदि अरोड़ा साहब पूछेंगे कि फ़ाइलें उसने कैसे निकालीं हैं तो वह इस बात को बता देगा कि कंप्यूटर से निकालीं हैं। यदि यह नहीं पूछा कि किस तरह से नोटिफ़िकेशन निकाला गया है, तो वह अपनी तरफ़ से बताएगा नहीं।
नीरज ने शक़ की निगाहों से सुभाष की तरफ़ देखा। सुभाष को नीरज का उसकी शक़ की निगाहों देखना गवारा न लगा। सुभाष ने कहा कि अरोड़ा साहब भी तो उसे हर महीने की सैलरी बराबर समय पर नहीं देते। वह अपनी काम को पूरी ईमानदारी से करता है। ऐसा कोई काम नहीं करता है जिससे अरोड़ा साहब को नुकसान पहुँचे। फिर भी यदि वह बीमार पड़ता है तो अरोड़ा साहब उसके पैसे काट लेते हैं। हॉस्पिटल में जाने पर यदि ऑफ़िस नहीं आता है तो उस दिन की पगार उसे काट ली जाती है। यहाँ तक कि उसके जितने भी ओवरटाइम के पैसे हैं, जितने भी बोनस के पैसे हैं उन पैसों को माँगने पर भी एक बार में वह पैसे नहीं मिलते। नीरज बाबू आपको तो पैसे समय पर मिल जाते हैं। आपका तो पैसा छुट्टी लेने पर नहीं कटता। यदि उसकी ईमानदारी के साथ भी बेईमानी की जा रही है तो वह भी वैसी बेईमानी क्यों न करें। वैसे भी उसकी बेईमानी से अरोड़ा साहब को तो कोई नुकसान नहीं पहुँचता, अलबत्ता उसे फायदा ज़रूर हो जाता है। नीरज चाह कर भी सुभाष को यह नहीं बता पाया कि उसके भी बोनस के पैसे समय पर नहीं मिलते।
नीरज ने कहा कि यदि कोई लोमड़ी की तरह व्यवहार कर रहा है तो इसका मतलब यह तो नहीं कि तुम भी लोमड़ी की तरह ही व्यवहार करने लगो। नीरज ने सुभाष से पूछा, "क्या तुमने साधु और बिच्छू की कहानी नहीं सुनी है?" नीरज बोलता गया। उसने सुभाष को कहानी याद दिलाई। "एक साधु था। वह तालाब में सुबह सुबह स्नान करने गया हुआ था। वहाँ पर उसने एक बिच्छू को देखा। उस तालाब में वह बिच्छू डूब कर मरने वाला था। साधु बार-बार अपने हथेली में बिच्छू को लाकर किनारे पर डालने की कोशिश करता, और बिच्छू बार-बार साधु को डंक मारता। साधु का स्वभाव था बिच्छू को बचाना और बिच्छू का स्वभाव था साधु को काटना।
"गिद्ध सड़े-गले मांस को खाकर ज़िंदा रहता है। पर गिद्ध के सड़े-गले मांस के खाने से हंस का स्वभाव तो नहीं बदलता। कौए को लाख मिठाई खिला दो, पर वो काँव काँव ही करेगा। कौए को देखकर तोता तो राम नाम जपना तो नहीं छोड़ता। माना कि अरोड़ा साहब तुम्हारे साथ बेईमानी करते हैं, न्याय नहीं करते पर इसका मतलब ये तो नहीं कि तुम भी उनके साथ बेईमानी करने लगो। अरोड़ा साहब के स्वभाव में ही बेईमानी है। वो व्यवसायी हैं, व्यापार केवल ईमानदारी के भरोसे चलता भी नहीं। तुम तो अपने स्वभाव में रहो।
"राम और रावण दोनों को दुनिया याद रखती है। राम अपने स्वभाव के कारण जाने जाते हैं और रावण अपने कर्मों के कारण। दुर्योधन के रास्ते को युधिष्ठिर ने कभी नहीं अपनाया। इसी तरीक़े से तुम भी अपने रास्ते से मत चूको। माना कि अरोड़ा साहब समय पर पैसे नहीं देते, पर पूरे पैसे दे तो देते हैं। यदि छुट्टी के पैसे काटते हैं तो उनसे बात करो। इन सारी बातों को मन मे क्यों रखते हो?"
सुभाष ने कहा कि मुझे यह सारी बातें समझ में नहीं आती है। पढ़ा-लिखा आदमी नहीं हूँ। मैं तो सिर्फ़ इतना जानता हूँ कि मेरी ईमानदारी के साथ बेईमानी की जाती है। तो फिर मैं अरोड़ा साहब साथ में थोड़ी सी बेईमानी क्यों न करूँ? प्रभु श्रीराम समुद्र के किनारे तीन दिन तक याचना करते रहे, आख़िर में जब उन्होंने धनुष ताना तभी समुद्र उनके आगे झुका।
याद कीजिए पांडवों ने भीष्म पितामह, गुरु द्रोणाचार्य, कर्ण, दुर्योधन आदि का वध कैसे किया? यहाँ तक कि राम ने भी बाली का शिकार छिप कर ही किया था। सियार के सामने कोई हनुमान चालीसा का पाठ करता है क्या? भैंस के आगे बीन बजाने से क्या फ़ायदा? यदि कोई जंगल के क़ानून से चलता है तो उसको जंगल के क़ानून ही समझ आते हैं। कोई अच्छा है इसका मतलब ये नहीं कि वो कमज़ोर है।
नीरज ने कहा कि सच्चाई के रास्ते पर चलने के लिए असीम ताक़त चाहिए होती है। यदि तुम किसी की बेईमानी से प्रभावित होते हो इसका कुल मतलब इतना ही है कि तुम कमज़ोर हो। होना ये चाहिए कि तुम्हारी अच्छाई का असर बेईमानों पे हो। तुमने गौतम बुद्ध और अंगुलिमाल की कहानी नहीं सुनी क्या? गौतम बुद्ध के प्रभाव में आकर अंगुलिमाल कैसे बौद्ध भिक्षु बन गया? नारद मुनि के कारण डाकू रत्नाकर महाकवि वाल्मीकि बन गया। यदि तुममे पहाड़ की ऊँचाई पर चढ़ने का सामर्थ्य नहीं है तो इसमें पहाड़ की चोटी क्या दोष? कोई ना कोई तो पहाड़ की चोटी पर चढ़ता ही है। यदि स्वयं में सामर्थ्य नहीं है तो कम से कम रास्ते की महत्ता का अपमान तो मत करो।
ख़ैर तुम तो मानोगे नहीं। तुमको जो करना है करो। मेरी तो स्वभाव में बेईमानी है ही नहीं। भाई मैं तो सुबह-सुबह उठकर रोज़ ध्यान करता हूँ। ध्यान में ईश्वर से यह प्रार्थना करता हूँ कि जिन सिद्धांतों का पालन मेरे पिता ने किया है, उन सिद्धांतों और आदर्शों पर मैं टिका रहूँ। और एक बात और है, मैं चाह कर भी बेईमानी नहीं कर सकता। नीरज ने वह नोटिफ़िकेशन सुभाष के हाथ में पकड़ा दिया और वहाँ से चल दिया। अरोड़ा साहब अपनी करनी का फल भुगतेंगे और तुम अपनी करनी का। मैं तो अपने रास्ते इसलिए चलता हूँ कि मुझे सुकून मिलता है और इससे मेरा दिल हल्का रहता है।
सुभाष ने कहा, "आपकी बात सही है, लेकिन आदर्शों से दुनिया नहीं चलती। मेरे बाबूजी गाँव से आये थे। उन्हें हॉस्पिटल दिखाने के लिए चार दिन की छुट्टी ली थी। अरोड़ा साहब ने पैसे काट लिए। बोनस के पैसे भी नहीं दे रहे हैं। हालाँकि पैसे पूरे दे देते हैं, पर समय पर नहीं मिलने पर क्या फ़ायदा। इन आदर्शों के भरोसे दवाई कहाँ से लाऊँ? मैं तो ठहरा गँवार आदमी। आपकी तरह पढ़ा-लिखा नहीं। मुझे तो बस इतना पता है कि जिस मरीज़ को जैसी बीमारी हो, उसे वैसी ही दवा दी जानी चाहिए। जंगल के क़ानून से जीने वाले व्यक्ति भक्ति के पाठ से कभी नहीं सुधरते। ईमानदारी कभी भी बेइमानी का इलाज नहीं हो सकती। बेईमानी तो बेईमानी से ही पछाड़ खा सकती है।"
नीरज ने सुभाष की फिर समझाने की कोशिश की। उसने कहा कि बेईमानी को ठीक करने का ठेका उसने अपने सर पर क्यों उठा रखा है? बेईमानों को सज़ा देने का काम तो ईश्वर का है। तुमको दिखाई नहीं पड़ता, अरोड़ा साहब को बी.पी. है, मधुमेह है, थाइरॉयड की बीमारी है? मसाला खा नहीं सकते, मीठा खा नहीं सकते, तितापन, खट्टापन, धूल-धक्कड़ से एलर्जी है उनको। दूध, दही से परहेज़ करना पड़ता है। ये सारी बेईमानियाँ उनके शरीर से निकल रही हैं। तुम्हें दिखाई नहीं पड़ती क्या?
सुभाष ने कहा कि चलिये मान लिया कि अरोड़ा साहब को अपनी करनी का फल मिल रहा है, पर इससे उसको क्या फ़ायदा हुआ? अरोड़ा साहब के बी.पी., मधुमेह या थाइरॉयड, एलर्जी होने से उसके पिता का इलाज तो संभव नहीं हो पा रहा है ना? और यदि बेईमानी की सज़ा उसे मिलती है तो उसे कोई अफ़सोस नहीं होगा। कम से कम उसके पिता का इलाज तो संभव हो पायेगा। नीरज को समझ आ गया कि भैंस के आगे बीन बजाने से कोई फ़ायदा होने वाला नहीं।
तक़रीबन आधे घंटे बाद अरोड़ा साहब वहाँ पर आए। सुभाष और नीरज दोनों की प्रसंशा खुले दिल से करने लगे। जब नीरज ने अरोड़ा साहब को उस नोटिफ़िकेशन को दिखाना चाहा, साहब ने कहा कि नोटिफ़िकेशन सुभाष ने व्हाट्सऐप्प से पहले ही भेज दिया है। अरोड़ा साहब ने सुभाष को बुलाकर कहा, "जितने पैसे खर्च हुए हैं, जाकर दीपक से ले लेना।"
नीरज चुप चाप देखता रहा। सुभाष ने 5000/- रुपये नोटिफ़िकेशन के ख़र्चे के नाम पर ले लिए। उन रुपयों से उसने अपने बीमार पिता के लिए दवाइयाँ ख़रीदीं और गाँव भेज दीं। बेईमानी के नमक का हक़ अदा हो चुका था।
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