शांति की आवाज़
काव्य साहित्य | कविता अजय अमिताभ 'सुमन'15 Nov 2019
किसी मनोहर बाग़ में एक दिन,
किसी मनोहर भिक्षुक गाँव,
लिए हाथ में पुष्प मनोहर,
बुद्ध आ बैठे पीपल छाँव।
सभा शांत थी, बाग़ शांत था,
चिड़ियाँ गीत सुनाती थीं।
भौरें रुन झुन नृत्य दिखाते,
और कलियाँ मुस्काती थीं।
बुद्ध की वाणी को सुनने को,
सारे तत्पर भिक्षुक थे,
हवा शांत थी, वृक्ष शांत सब,
इस अवसर को उत्सुक थे।
उत्सुक थे सारे वचनों को,
जब बुद्ध मुख से बोलेंगे,
बंद पड़े जो मानस पट है,
बुद्ध निज वचनों से खोलेंगे.
समय धार बहती जाती थी,
बुद्ध मुख से कुछ न कहते थे,
मन में क्षोभ विकट था सबको,
पर भिक्षुक जन सहते थे।
इधर दिवस बिता जाता था,
बुद्ध बैठे थे ठाने मौन,
ये कैसी लीला स्वामी की,
बुद्ध से आख़ि
र पूछे कौन ?
काया सबकी भाग में स्थित,
पर मन दौड़ लगाता था,
भय, चिंता के श्यामल बादल,
खींच खींच के लाता था.
तभी अचानक ज़ोर से सबने,
हँसने की आवाज़ सुनी,
अरे अकारण हँसता है क्यूँ,
ओ महाकश्यप, ओ गुणी।
गौतम ने हँसते नयनों से,
महाकश्यप को दान किया,
निज वन में जाने से पहले,
वो ही पुष्प प्रदान किया।
पर उसको न चिंता थी न,
हँसने को अवकाश दिया,
विस्मित थे सारे भिक्षुक क्या,
गौतम ने प्रकाश दिया।
तुम्हीं बताओ महागुणी ये,
कैसा गूढ़ विज्ञान है?
क्या तुम भी उपलब्ध ज्ञान को,
हो गए हो ये प्रमाण है?
कहा ठहाके मार मार के,
महाकश्यप गुणी सागर ने,
परम तत्व को कहके गौतम,
डाले कैसे मन गागर में।
शांति की आवाज़ सुन सको,
तब तुम भी सब डोलोगे,
बुद्ध तुममें भी बहना चाहे,
तुम सब मन पट कब खोलोगे?
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