संबोधि के क्षण
काव्य साहित्य | कविता अजय अमिताभ 'सुमन'15 May 2019
इन आँखों से नित दिन गुनता,
रहता था जिसके सपने,
वो भी तो देखे इस जग को,
नित दिन आँखों से अपने।
कानों में जो प्यास जगी थी,
वाणी जिसकी सुनने को,
वो भी तो बेचैन रहा था,
अक्सर मुझसे मिलने को।
पर मैं अक्सर अपनों में,
नित दिन ही खोया रहता था,
दिन में तो चलता रहता,
सपनों में सोया रहता था।
जन्मों जन्मों से ख़ुद को,
छलने से ज्ञात हुआ है क्या?
सच ही तो है कभी सत्य,
स्वप्नों में प्राप्त हुआ है क्या?
निराशुद्ध था पावन निर्मल,
इसका बोध नहीं मुझको,
निज को ही जो ठगता जग में,
वो निर्बोध कहे किसको?
जन्मों की अब टूटी तन्द्रा,
मुझको ये संज्ञान हुआ,
प्राप्त नहीं कुछ भी किंचित,
केवल लुप्त अज्ञान हुआ।
कर्णों के जो पार बसा है,
बंद आँखें हैं जिसकी द्वार,
बिना नाद की बजती विणा,
वो ॐ है सृष्टि सार।
पाने को कुछ बचा नहीं और,
खोने को ना शेष रहा,
मैं जग में जग है मुझमें कि,
कुछ भी ना अवशेष रहा।
हुआ तिरोहित अहमभाव औ,
जाना कर्म ना कर्ता हूँ,
वो परम तत्व वो परम सत्व,
सृष्टि व्यापत हूँ, द्रष्टा हूँ।
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
कविता
- आख़िर कब तक आओगे?
- ईक्षण
- एकलव्य
- किरदार
- कैसे कोई जान रहा?
- क्या हूँ मैं?
- क्यों नर ऐसे होते हैं?
- चाणक्य जभी पूजित होंगे
- चिंगारी से जला नहीं जो
- चीर हरण
- जग में है संन्यास वहीं
- जुगनू जुगनू मिला मिलाकर बरगद पे चमकाता कौन
- देख अब सरकार में
- पौधों में रख आता कौन?
- बेईमानों के नमक का, क़र्ज़ा बहुत था भारी
- मन इच्छुक होता वनवासी
- मरघट वासी
- मानव स्वभाव
- मार्ग एक ही सही नहीं है
- मुझको हिंदुस्तान दिखता है
- मृत शेष
- रावण रण में फिर क्या होगा
- राष्ट्र का नेता कैसा हो?
- राह प्रभु की
- लकड़बग्घे
- शांति की आवाज़
- शोहरत की दौड़ में
- संबोधि के क्षण
- हौले कविता मैं गढ़ता हूँ
- क़लमकार को दुर्योधन में पाप नज़र ही आयेंगे
- फ़ुटपाथ पर रहने वाला
कहानी
सांस्कृतिक कथा
सामाजिक आलेख
सांस्कृतिक आलेख
हास्य-व्यंग्य कविता
नज़्म
किशोर साहित्य कहानी
कथा साहित्य
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं