ज़ीरो कोड
कथा साहित्य | कहानी अजय अमिताभ 'सुमन'1 Nov 2022 (अंक: 216, प्रथम, 2022 में प्रकाशित)
घर में घुसते ही सारा सामान बिखरा पड़ा हुआ मिलता था। इधर पैर तो उधर हाथ टूटा पड़ा हुआ रहता था। टेबल, कुर्सी सारे के सारे अस्त-व्यस्त पड़े हुए मिलते थे। उसके हाथों में कोई भी समान सुरक्षित रह ही नहीं सकता था।
ऐसे ही नहीं बड़े लोग उसे बहुत ही शरारती बच्चा कहते थे। रित्विक के हाथ में कोई भी खिलौना पकड़ा दो, टूटने में समय नहीं लगता। तुरंत ही उसकी तोड़-फोड़ चालू हो जाती। उम्र बढ़ती गई तो उसकी ये आदत भी।
बचपन के खिलौनों ने उसका स्थान साइकिल, फिर मोटरसाइकिल, पेन, पेंसिल आदि ने लिया। इन सबके साथ वो नए नए प्रयोग करता रहा। नई-नई चीज़ें बनाने के कोशिश जारी रहती।
कभी पतंग में बैट्री लगाकर बल्ब जला देता तो कभी नींबू की सहायता से लालटेन जलाता। कभी पेन और पेंसिल में बैट्री लगाकर बल्ब जला देता।
कभी कभी उसके प्रयोगों से लोगों को प्रशंसा मिलती तो कभी नुक़्सान भी हो जाता। जो भी हो लेकिन इनका ख़म्याज़ा उसके द्वारा अनगिनत चीज़ों की बरबादी थी।
बचपन में तो उसके माँ-बाप जैसे तैसे करके उसके इस शौक़ को नज़रंदाज कर देते, परन्तु जैसे जैसे रित्विक बड़ा होने लगा उसके द्वारा प्रयोगों से किए गए नुक़्सान भी बड़े होने लगे।
बड़ा होने पर उसके पिता ने उसकी प्रतिभा के अनुसार उसका दाख़िला इंजीनियरिंग कॉलेज में करा दिया। उसकी रुचि के अनुसार कंप्यूटर इंजीनियरिंग में एडमिशन भी मिल गया।
रित्विक को अपने मन मुताबिक़ विषय मिलने पर काफ़ी ख़ुशी हुई। उसकी मेहनत रंग लाई और इंजीनियरिंग की डिग्री लेने के बाद एक बहुत बड़ी मल्टी नेशनल कम्पनी में डिकोडर के रूप में जॉब करने लगा।
कंप्यूटर में किसी तरह का वायरस किसी भी पार्ट में इंस्टाल किया गया हो, उसके ब्रेक करना उसके लिए बाएँ हाथ का खेल था। दुनिया का कोई भी कंप्यूटर प्रोग्राम कोई ऐसा वायरस नहीं था जिसे वो डिकोड ना कर सके।
आज तक किसी भी प्रोग्राम को डिकोड करने में उसे 10 मिनट से ज़्यादा नहीं लगे थे। शुरूआती कुछ वर्षों तक तो उस मल्टी नेशनल कंपनी में काम करता रहा। फिर कुछ दिनों के बाद उसने अपनी ख़ुद की कम्पनी खोल ली।
धीरे-धीरे रित्विक की प्रतिभा का लोहा सभी मानने लगे। ज़ाहिर सी बात है नाम बढ़ता है तो उससे जलन रखने वाले लोग भी। उसकी प्रतिस्पर्धी कंपनियों ने अनेक वायरस बनाए और वो हर बार चुटकियों में कंप्यूटर कोड ब्रेक कर आता।
एक बार वो बैठ कर अपनी पत्नी के सामने अपनी प्रतिभा का बखान कर रहा था। रित्विक की पत्नी को समझ आ गया कि इस अहंकार को तोड़ने की ज़रूरत है। उसकी पत्नी ने कहा, “ठीक है आप मेरे मोबाइल का लॉक कोड ब्रेक कर दिखाइए।”
रित्विक घमंड के साथ अपनी पत्नी के मोबाइल को अपने लैपटॉप के साथ कनेक्ट कर पासवर्ड ब्रेक करने की कोशिश करने लगा। जिस काम को चुटकियों में निपटा देता था, उसको यहाँ करने में घंटों लगने लगे फिर भी उसे लॉक कोड दिखाई ही पड़ता था।
आख़िर मोबाइल के किस कोने में वो कोड छुपा हुआ था, उसको समझ ही नहीं आ रहा था। लैपटॉप को बूट पे बूट मारे जा रहा था परन्तु मोबाइल का वो लॉक कोड था कि वो दिखने का नाम ही नहीं ले रहा था।
आत्म विश्वास हो तो ठीक है, अति आत्म विश्वास भी कुछ हद तक ठीक होता है परन्तु जब यही अहंकार में परिवर्तित हो जाता है तब ये आदमी के लिए हताशा और खिन्नता के अलावा कुछ नहीं लाता।
समय गवाह है, मानव तो मानव क्या, राजा और देवता भी जब जब अहंकार के शिकार हो जाते हैं, उनका मान मर्दन अवश्यंभावी हो जाता है। जब ईश्वर भी हमेशा सही नहीं होता तो रित्विक था ही क्या, अहंकार टूटना ही था। ये तो अच्छा हुआ, ये टूटा भी तो कहाँ, आख़िर ख़ुद की पत्नी के सामने ही।
पहले आश्चर्य, आश्चर्य फिर खीज, खीज फिर हताशा और हताशा अंततोगत्वा निराशा में बदलने लगी। उसे ख़ुद पे भरोसा नहीं हो पा रहा था कि आख़िर ये सम्भव हुआ कैसे? उसकी पत्नी ने आख़िर ये किया क्या है कि ये कोड नज़र ही नहीं आ रहा!
अपने पति के अहंकार को धूल धूसरित होते देख उसकी पत्नी को सहानुभूति होने लगी। वो बार-बार उठकर बताने की कोशिश करती परन्तु रित्विक के खिन्न आँखों के सामने रुक जाती। लगभग 2 घंटे बीत गए थे और रित्विक अभी भी मोबाइल के कोड को ढूँढ़ नहीं कर पाया था।
अंत में खिन्न होकर उसने मोबाइल को बिछावन पर फेंक दिया। और ये क्या, बिछावन पर गिरते ही मोबाइल अनलॉक हो गया। रित्विक को अपनी पत्नी का सारा खेल समझ आ गया। दरअसल मोबाइल में कोई लॉक कोड था ही नहीं।
आख़िर कोई कोड हो तो मिले। अब ईगो का भी भला कोई कोड हो सकता है क्या? वो तो ज़ीरो कोड था, नज़र आता भी तो कैसे? रित्विक की झेंप और उसकी पत्नी की मुस्कुराहट देखते ही बनती थी।
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