देख अब सरकार में
काव्य साहित्य | कविता अजय अमिताभ 'सुमन'15 Sep 2020 (अंक: 164, द्वितीय, 2020 में प्रकाशित)
ज़मीर मेरा कहता जो करता रहा था तब तक,
मिल रहा था मुझ को क्या बन के ख़ुद्दार में।
बिकना ज़रूरी था देख कर बदल गया,
बिक रहे थे कितने जब देखा अख़बार में।
हौले सीखता गया जो ना था किताब में,
दिल पे भारी हो चला दिमाग़ कारोबार में ।
सच की बातें ठीक हैं पर रास्ते थोड़े अलग,
तुम कह गए हम सह गए थोड़े से व्यापार में।
हाँ नहीं हूँ आजकल मैं जो कभी था कल तलक,
सच में सच पे टिकना ना था मेरे इख़्तियार में।
ज़मीर से डिग जाने का फ़न भी कुछ कम नहीं,
वक़्त क्या है क़ीमत क्या मिल रही बाजार में।
तुम कहो कि जो भी है सच पे ही क़ुर्बान हो ,
क्या ज़रूरी सच जो तेरा सच ही हो संसार में।
वक़्त से जो लड़ पड़े पर क्या मिला है आपको,
हम तो चुप थे आ गए हैं देख अब सरकार में।
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
कविता
- आख़िर कब तक आओगे?
- ईक्षण
- एकलव्य
- किरदार
- कैसे कोई जान रहा?
- क्या हूँ मैं?
- क्यों नर ऐसे होते हैं?
- चाणक्य जभी पूजित होंगे
- चिंगारी से जला नहीं जो
- चीर हरण
- जग में है संन्यास वहीं
- जुगनू जुगनू मिला मिलाकर बरगद पे चमकाता कौन
- देख अब सरकार में
- पौधों में रख आता कौन?
- बेईमानों के नमक का, क़र्ज़ा बहुत था भारी
- मन इच्छुक होता वनवासी
- मरघट वासी
- मानव स्वभाव
- मार्ग एक ही सही नहीं है
- मुझको हिंदुस्तान दिखता है
- मृत शेष
- रावण रण में फिर क्या होगा
- राष्ट्र का नेता कैसा हो?
- राह प्रभु की
- लकड़बग्घे
- शांति की आवाज़
- शोहरत की दौड़ में
- संबोधि के क्षण
- हौले कविता मैं गढ़ता हूँ
- क़लमकार को दुर्योधन में पाप नज़र ही आयेंगे
- फ़ुटपाथ पर रहने वाला
कहानी
सांस्कृतिक कथा
सामाजिक आलेख
सांस्कृतिक आलेख
हास्य-व्यंग्य कविता
नज़्म
किशोर साहित्य कहानी
कथा साहित्य
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं