अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा यात्रा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

कला डींग हाँकने की

 

अपनी डींग हाँकना किसे अच्छा नहीं लगता? पर शेख़ी बघारना भी एक कला है कला है। ये हुनर विरले को ही मिलता है। संदीप अपने दोस्तों के साथ अपनी शेख़ी बघारने में व्यस्त था। 

संदीप अपनी डींग हाँकते हुए बोला, “अभी कल ही की तो बात है, उसकी हाथी के साथ ठन गई। रास्ते पर उसके सामने हाथी आ गया था। वो भी अड़ गया।” 

दोस्त ने पूछा, “फिर क्या हुआ?” 

संदीप ने कहा, “होना क्या था, महावत को हाथी को पीछे हटाना पड़ा। आख़िर संदीप जो सामने खड़ा था।” 

उसके दोस्त से रहा न गया। उसने संदीप को चुनौती देते हुए कहा, “अगर एक बात कर सको तो मान लूँ। क्या तुम बब्बन सिंह को सबके सामने काना कह सकते हो?” 

संदीप ने चुनौती स्वीकार कर ली। 

समय तय हुआ रविवार के सुबह 10 बजे, स्थान बब्बन सिंह का घर। 

बब्बन सिंह एक आँख का काना था। क़द काठी काफ़ी मज़बूत थी। जो भी उसको काना बोल देता, वो उसकी धुलाई कर देता। मुद्दा ये था कि उसको कोई काना बोले तो बोले कैसे? 

तय वक़्त के समय संदीप के दोस्त बब्बन सिंह के घर के सामने इकट्ठे हो गए। सबकी कौतूहलता चरम सीमा पर थी। 

बब्बन सिंह के सामने आते ही संदीप ने कहना शुरू किया, “आना है, राणा है, बब्बन सिंह बहुत बड़ा मरदाना है।” 

बब्बन सिंह ख़ुश होकर बोला, “आगे बोल।” 

संदीप ने कहा, “ऐसा दीवाना है, ऐसा मस्ताना है, कि सर पे डाले केशरिया बाना है। बड़े बड़ों का छुड़ा देता पैखाना है। भले एक आँख का काना है, पर बब्बन सिंह सचमुच में बहुत वीर मरदाना है।” 

बब्बन सिंह सीना चौड़ा कर संदीप का कंधा थपथपाते हुए आगे बढ़ गया। 

इधर संदीप सीना चौड़ा कर अपने दोस्तों को देख रहा था। उसने साबित जो कर दिया था कि डींग हाँकने की कला में उसकी कोई सानी नहीं। फिर चाहे ख़ुद की हाँकनी हो या कि औरों की। 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

 छोटा नहीं है कोई
|

इलाहाबाद विश्वविद्यालय के गणित के प्रोफ़ेसर…

अंतिम याचना
|

  शबरी की निर्निमेष प्रतीक्षा का छोर…

अंधा प्रेम
|

“प्रिय! तुम दुनिया की सबसे सुंदर औरत…

अपात्र दान 
|

  “मैंने कितनी बार मना किया है…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता

कहानी

सांस्कृतिक कथा

सामाजिक आलेख

सांस्कृतिक आलेख

हास्य-व्यंग्य कविता

नज़्म

किशोर साहित्य कहानी

कथा साहित्य

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं