कला डींग हाँकने की
कथा साहित्य | सांस्कृतिक कथा अजय अमिताभ 'सुमन'15 Jan 2024 (अंक: 245, द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)
अपनी डींग हाँकना किसे अच्छा नहीं लगता? पर शेख़ी बघारना भी एक कला है कला है। ये हुनर विरले को ही मिलता है। संदीप अपने दोस्तों के साथ अपनी शेख़ी बघारने में व्यस्त था।
संदीप अपनी डींग हाँकते हुए बोला, “अभी कल ही की तो बात है, उसकी हाथी के साथ ठन गई। रास्ते पर उसके सामने हाथी आ गया था। वो भी अड़ गया।”
दोस्त ने पूछा, “फिर क्या हुआ?”
संदीप ने कहा, “होना क्या था, महावत को हाथी को पीछे हटाना पड़ा। आख़िर संदीप जो सामने खड़ा था।”
उसके दोस्त से रहा न गया। उसने संदीप को चुनौती देते हुए कहा, “अगर एक बात कर सको तो मान लूँ। क्या तुम बब्बन सिंह को सबके सामने काना कह सकते हो?”
संदीप ने चुनौती स्वीकार कर ली।
समय तय हुआ रविवार के सुबह 10 बजे, स्थान बब्बन सिंह का घर।
बब्बन सिंह एक आँख का काना था। क़द काठी काफ़ी मज़बूत थी। जो भी उसको काना बोल देता, वो उसकी धुलाई कर देता। मुद्दा ये था कि उसको कोई काना बोले तो बोले कैसे?
तय वक़्त के समय संदीप के दोस्त बब्बन सिंह के घर के सामने इकट्ठे हो गए। सबकी कौतूहलता चरम सीमा पर थी।
बब्बन सिंह के सामने आते ही संदीप ने कहना शुरू किया, “आना है, राणा है, बब्बन सिंह बहुत बड़ा मरदाना है।”
बब्बन सिंह ख़ुश होकर बोला, “आगे बोल।”
संदीप ने कहा, “ऐसा दीवाना है, ऐसा मस्ताना है, कि सर पे डाले केशरिया बाना है। बड़े बड़ों का छुड़ा देता पैखाना है। भले एक आँख का काना है, पर बब्बन सिंह सचमुच में बहुत वीर मरदाना है।”
बब्बन सिंह सीना चौड़ा कर संदीप का कंधा थपथपाते हुए आगे बढ़ गया।
इधर संदीप सीना चौड़ा कर अपने दोस्तों को देख रहा था। उसने साबित जो कर दिया था कि डींग हाँकने की कला में उसकी कोई सानी नहीं। फिर चाहे ख़ुद की हाँकनी हो या कि औरों की।
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