गोबर की छाप
काव्य साहित्य | कविता प्रो. ऋषभदेव शर्मा27 Oct 2018
तुमसे भागकर, राधा,
जिस दिन से शहर आया हूँ,
धो रहा हूँ
मटमैली कमीज़ को
रोज़ -
एलकोहल से, पैट्रोल से।
गाँव की सौंधी गंध तो
कभी की जाती रही
लेकिन
गोबर सनी हथेली की
इस छाप का क्या करूँ
जिसका रंग
पीठ पर
दिन-दिन गहराता जाता है!
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