निवेदन
काव्य साहित्य | कविता प्रो. ऋषभदेव शर्मा27 Oct 2018
जीवन
बहुत-बहुत छोटा है,
लम्बी है तकरार!
और न खींचो रार!!
यूँ भी हम तुम
मिले देर से
जन्मों के फेरे में,
मिलकर भी अनछुए रह गए
देहों के घेरे में।
जग के घेरे ही क्या कम थे
अपने भी घेरे
रच डाले,
लोकलाज के पट क्या कम थे
डाल दिए
शंका के ताले?
कभी
काँपती पंखुड़ियों पर
तृण ने जो चुम्बन आँके,
सौ-सौ प्रलयों
झंझाओं में
जीवित है झंकार!
वह अनहद उपहार!!
केवल कुछ पल
मिले हमें यों
एक धार बहने के,
काल कोठरी
मरण प्रतीक्षा
साथ-साथ रहने के।
सूली ऊपर सेज सजाई
दीवानी मीराँ ने,
शीश काट धर दिया
पिया की
चौखट पर
कबिरा ने।
मिलन महोत्सव
दिव्य आरती
रोम-रोम ने गाई,
गगन-थाल में सूरज चन्दा
चौमुख दियना बार!
गूंजे मंगलचार!!
भोर हुए
हम शंख बन गए,
सांझ घिरे मुरली,
लहरों-लहरों बिखर बिखर कर
रेत-रेत हो सुध ली।
स्वाति -बूँद तुम बने
कभी, मैं
चातक-तृषा अधूरी,
सोनचम्पई गंध
बने तुम,
मैं हिरना कस्तूरी।
आज
प्राण जाने-जाने को,
अब तो मान तजो,
मानो,
नयन कोर से झरते टप-टप
तपते हरसिंगार!
मुखर मौन मनुहार!!
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