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अनकही

 

मोबाइल की रिंग से देवयानी की तंद्रा टूटी, हड़बड़ाकर उठते हुए उसने घड़ी देखी, शाम के 6 बज रहे थे। पुराने एलबम को देखते हुए जाने कब उसकी आँख लग गई थी, पता ही नहीं चला था। साँझ घिरने लगी थी। थका हुआ सूरज किरणों की गठरी समेटकर, लालिमा बिखेरते हुए, क्षितिज की सीढ़ियाँ उतरने लगा था। दो मिनिट उसने फोन पर श्रीकांत से बात की फिर संध्या-आरती के लिए उठ गई। 

इतने बड़े घर में आज देवयानी अकेली थी। पति श्रीकांत ऑफ़िस के काम से शहर से बाहर थे और दोनों बच्चे अपने-अपने हॉस्टल। माँ-बाबूजी भी इन दिनों अपनी मित्र मंडली के साथ गंगासागर की यात्रा पर थे। अकेलापन उसे काटने को दौड़ रहा था। पहले का समय होता तो बड़े अधिकार से अरुणिमा को बुला लेती। लेकिन अब . . . अब शायद ऐसा कभी सम्भव नहीं हो पाएगा, सोचते-सोचते देवयानी का मन कसैला-सा हो गया, लेकिन पलकों की कोरें जाने क्यों नम होने लगी थी। अरुणिमा के संग बचपन से लेकर अब तक बिताए सारे पल किसी चलचित्र के दृश्यों की भाँति एक-एक करके अनजाने ही उसकी आँखों सामने से होकर गुज़रने लगे। 

देवयानी और अरुणिमा बचपन से ही दोस्त थे। दोनों ने संग-संग ही बचपन और कैशोर्य की दहलीज़ पार करके यौवन का स्वागत किया था। कितनी सारी बातें, कितनी सारी यादें . . . दोनों ने इतना समय साथ बिताया था कि वे एक दूसरे की नस-नस से वाक़िफ़ थीं। एक-दूसरे में उनकी जान बसती थी। साथ-साथ कॉलेज जाना, एक-दूसरे के घर जाना, मॉल, सिनेमा घूमना उनका प्रिय शग़ल था। दोनों एक-दूसरे से सारी बातें साझा करते . . . बस एक बात देवयानी ने अरुणिमा से छुपाकर रखी थी। शर्मीली देवयानी चाहकर भी अरुणिमा से नहीं कह पाई थी कि, अरुणिमा का भाई श्रीकांत उसे पसंद करता है। और वो भी तो श्रीकांत को अपना मान चुकी थी। प्यार कभी अकेला नहीं आता, वो अपने साथ ढेर सारी मासूम सौग़ातें लेकर आता है, जैसे झुकी पलकों से झाँकती आँखों की चमक और लबों पर ठहरी हुई मुस्कुराहट। सागर में ज्वार के आने पर लहरें कितनी भी उमंगित-उत्साहित हो जाएँ, मोती को तलहटी में ही छुपाए रखती हैं। देवयानी और श्रीकांत ने भी अपना प्यार सहेजकर छुपा रखा था। लेकिन दोनों के परिवार वालों की पारखी नज़र ने उन्हें परिणय सूत्र में बाँधकर सदा के लिए एक कर ही दिया था। 

अब अरुणिमा, देवयानी की ननद बन चुकी थी। देवयानी अपनी क़िस्मत पर इठलाने लगी थी, कि उसकी सबसे अच्छी सखी अब उसकी ननद भी है। देवयानी अपने मधुर स्वभाव से ससुराल में भी सबके दिलों पर राज करने लगी थी। माँ-बाबूजी भी उसे हाथों हाथ लेने लगे, उसकी पसंद–नापसंद का ध्यान भी रखने लगे थे। अरुणिमा को कभी कभी लगता, उसकी जगह छिनती जा रही है। उस दिन जब माँ ने अरुणिमा से कहा, “बेटा तुझे भी अपनी ससुराल में अपनी भाभी की तरह सबसे मिलजुल रहना होगा और सबके साथ निभाकर चलना होगा।” तो अरुणिमा की आँखों में एक अजीब सी ईर्ष्या की झलक देखकर देवयानी का हृदय बैठने सा लगा था। ‘कहीं रिश्तों की उलझन में कसमसाकर हमारी वर्षों पुरानी दोस्ती दम न तोड़ दे,’ देवयानी ने सोचा था। 
लेकिन इतनी पुरानी, इतनी प्रगाढ़ मित्रता की जड़ें इतनी भी कमज़ोर नहीं थी। अरुणिमा को अपनी प्रिय दोस्त, अपनी प्यारी भाभी पर बहुत नाज़ था। देवयानी और अरुणिमा बहुत अच्छा समय साथ गुज़ारने लगे थे। देखते ही देखते सात साल बीत गए। देवयानी दो बच्चों की माँ बन गई। देवयानी के विवाह के सात साल बाद उसी शहर में अरुणिमा का भी विवाह हो गया। 

विवाह के एक वर्ष बाद अरुणिमा उन दिनों मायके आई हुई थी। उस दिन श्रीकांत की चचेरी बहन का ब्याह था। सब लोगों को उस विवाह में सम्मिलित होना था। देवयानी और अरुणिमा ख़ूब मन से तैयार हो रहीं थीं। लेकिन जैसे ही देवयानी ने अपना हार पहना वो जाने कैसे टूट गया। “अब क्या करूँ? मैंने तो आज पहनने के लिए लॉकर से यही हार निकाला था।।,” रुआँसी होकर देवयानी ने कहा।

“ले ये हार पहन ले,” सास ने तुरंत एक दूसरा हार लाकर देवयानी को दिया था। हार को देखते ही देवयानी और अरुणिमा दोनों की आँखें चुँधिया गईं। बारीक़ काम का रत्न जड़ित सोने का हार अपनी नायाब कारीगरी का अनूठा नमूना था।

“माँ, ये कौन सा हार है? मैंने इसे पहले तो कभी देखा नहीं!” आश्चर्य से अरुणिमा ने कहा था।

“ये मेरा बहुत पुराना हार है, मुझे मेरे मायके से मिला था, इसे बहुत सँभालकर रखा था, कभी निकाला ही नहीं, आज ही ध्यान आया,” माँ ने मुस्कुराकर कहा था। उस हार को पहनते ही सुंदर देवयानी का रूप और भी निखर उठा था। विवाह समारोह में देवयानी और उस हार की ख़ूब तारीफ़ हुई।

“मैं भी इसे पहनकर देखूँगी,” अरुणिमा ने ललचाकर देवयानी से कहा था। 

घर आकर जब सब लोग आराम से बैठकर गपियाने लगे तो अरुणिमा ने देवयानी से कहा, “देवयानी, ज़रा हार निकाल दे, मुझे पहनकर देखना है।” देवयानी हार लेने गई तो उसका दिल धक से रह गया, हार तो वहाँ था ही नहीं। ‘”मुझे अच्छी तरह याद है, मैंने यहीं तो रखा था और अभी-अभी तो रखा था कहाँ ग़ायब हो गया? अब माँ क्या कहेंगी?’ देवयानी ने बहुत ढूँढ़ा मगर हार नहीं मिला। घबराकर उसने घर में बताया तो सब सन्न रह गए सबने बहुत ढूँढ़ा लेकिन हार तो ऐसे ग़ायब हो गया मानो कभी था ही नहीं। रात भर देवयानी को बार-बार ये ख़्याल आता रहा, ‘हो न हो अरुणिमा ने ही हार को ग़ायब कर दिया’ और अरुणिमा रात भर सोचती रही, ‘देवयानी ने ही हार को कहीं छुपा दिया, कहीं मैं न माँग लूँ।’

उस रात के बाद देवयानी और अरुणिमा की दोस्ती में दरार पड़ गई, मानो उनकी दोस्ती को ख़ुद उनकी ही नज़र लग गई हो। इतने सालों की गहरी दोस्ती पल भर में ही औपचारिक रिश्ते में बदल गई। हालाँकि उसके बाद न तो देवयानी ने, न ही अरुणिमा ने और न ही किसी और ने, हार के बारे में कोई चर्चा की। देवयानी को बड़ा आश्चर्य हुआ कि इतनी महँगी चीज़ खोने के बावजूद भी माँ-बाबूजी ने उसे बिल्कुल भी नहीं डाँटा। उस दिन की घटना ने दोनों को झकझोर कर रख दिया था। शक के घुन ने उनकी दोस्ती की नींव को खोखला कर दिया था। 

अरुणिमा कई बार मायके आती रही और देवयानी अधूरे मन से उसके प्रति अपने सारे कर्त्तव्य पूरे करती रही। समय बीतता रहा लेकिन उन दोनों रिश्ते से दोस्ती का माधुर्य रूठकर जाने कहाँ खो गया था। 

सूने घर में आज रह-रहकर देवयानी को अरुणिमा की बहुत याद आने लगी। वो सोचती ‘क्या वो हार हमारी अनमोल दोस्ती से भी बढ़कर था। अगर माँ ने वो हार हमें दिखाया ही नहीं होता, तो आज मेरी बचपन की सहेली, मेरी अपनी ननद मुझसे दूर नहीं हुई होती। आख़िर ऐसा हुआ ही क्यों . . .?’ सोचते सोचते देवयानी को घबराहट होने लगी, रोना आने लगा।

“तुम कब आओगे श्रीकांत? मुझे बहुत घबराहट हो रही है, मन नहीं लग रहा, सिर में तेज दर्द भी हो रहा है, बहुत अकेलापन लग रहा है,” देवयानी ने श्रीकांत को फोन किया।

“अरे! क्या हुआ? थोड़ी देर पहले तक तो ठीक थी। मुझे तो दो दिन और लगेंगे। तबियत ख़राब हो रही है क्या?” श्रीकांत को चिंता होने लगी। 

रात के 8 बजे अचानक डोरबेल बज उठी, “कौन होगा इतनी रात को?” सोचते हुए देवयानी ने दरवाज़ा खोला तो सामने अरुणिमा को देखकर चौंक गई।

“कैसी है तू? भैया का फोन आया था, कहा तेरी तबियत ठीक नहीं है, मैं सारे काम छोड़कर जल्दी से आ गई?” अरुणिमा ने फ़िक्रमंद स्वर में पूछा।

“घबराहट और सिरदर्द,” कहते-कहते देवयानी के गले में कुछ अटकने सा लगा। “भैया ने माँ को भी फोन किया था, माँ ने कहा है कि उनकी अलमारी में बाम रखा है और दवाई भी रखी है। मैं ले आती हूँ।” 

देवयानी, अरुणिमा को देख़ती ही रह गई, उसे लगा अभी भी कुछ नहीं बदला, ये वही उसकी बचपन की सहेली ही तो है, जो उसके लिए कुछ भी करने को तैयार रहती थी। देवयानी भी सम्मोहित सी अरुणिमा के पीछे-पीछे माँ के कमरे में चली गई। माँ की बड़ी सी अलमारी खोलकर दोनों दवा का बक्सा ढूँढ़ने लगे। तभी कपड़ों के बीच रखा हुआ एक बक्सा नज़र आया, “यही होगा, अरुणिमा ने कहा।” बक्से के खुलते ही दोनों की आँखें खुली की खुली ही रह गईं। उसमें वही हार सहेजकर रखा हुआ था और साथ में एक चिट्ठी भी थी।

“देवयानी और अरुणिमा, तुम दोनों मेरी दो आँखें हो और मुझे समान रूप से प्रिय हो। मुझे पता है कि ये हार तुम दोनों को ही बेहद पसंद है। मैंने ही यह हार तुम दोनों की नज़रों से दूर कर दिया था, ताकि इस हार के कारण तुम दोनों की दोस्ती और प्रेम में खटास न आए। इतने बारीक़ काम का इसी के जैसा दूसरा हार मिलना या बनवाना भी सम्भव नहीं है। मेरे मायके से मिले हुए इस हार के साथ मेरी भावनाएँ जुड़ी हुई हैं, इसलिए मैं अपने जीते-जी इसे बेच नहीं सकती। लेकिन मेरी मृत्यु के उपरांत तुम दोनों इसे बेचकर इससे मिलने वाली रक़म को आधा-आधा बाँट लेना और अपने लिए कुछ ले लेना, लेकिन याद रखना कि रिश्तों की गरिमा, दोस्ती और प्यार की अहमियत भौतिक वस्तुओं की तुलना में कहीं अधिक होती है।”

ख़त को पढ़ते ही दोनों सहेलियाँ स्तब्ध रह गईं। अपनी कलुषित मानसिकता को धिक्कारती हुई दोनों अपनी आँखों को पश्चाताप के आँसुओं से धोने लगी, एक दूसरे के हाथों को थामकर देर तक निःशब्द ही बैठी रही। कहने को कुछ बचा ही नहीं था। पुरानी दोस्ती की मिठास ने अनकहे ही दोनों के उज्जवल मुखड़ों पर मुस्कुराहट की सुंदर आभा बिखेर दी थी।श

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