अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

अनुरक्त


“चल न रूपाली, और कितनी देर ख़ुद को निहारेगी?” शीशे के सामने देर से खड़ी रूपाली को मैं अक़्सर ज़बरदस्ती खींचती थी। रूपाली मेरी जुड़वाँ बहन थी। माँ-पप्पा ने हम दोनों के नाम मिलते-जुलते रखे थे, रूपाली और दीपाली। यथा नाम तथा गुण, रूपाली अनिंद्य सुंदरी थी। रंग ऐसा, मानो किसी ने दूध में दो बूँद आलता मिला दिया हो, सद्यः प्रस्फुटित कुमुदिनी सा स्निग्ध मुखमंडल, सुतवाँ नाक जैसे विधाता ने स्वयं नाप तौलकर उकेरी हो, घनी पलकों से झाँकती, इठलाती, अठखेलियाँ करती, उज्जवल आँखें, गुलाब की ताज़ा पंखुड़ियों का रंगत से सजे अधर, हल्के से घुँघराले, लहराते लम्बे बाल, आकर्षक देहयष्टि। जो भी रूपाली देखता दो पल को अपनी नज़रें हटा ही नहीं पाता था। हम दोनों जुड़वाँ बहनों के गुण बिल्कुल अलग थे। जहाँ रूपाली को रूप का वरदान प्राप्त था वहीं मुझे विधाता ने तीक्ष्ण बुद्धि का आशीष दिया था, जिसके चलते मुझे अपने शिक्षकों और सहपाठियों का बहुत स्नेह और सम्मान प्राप्त था। साल दर साल मैं अव्वल नम्बरों से आगे बढ़ती रही। वहीं रूपाली बस जैसे-तैसे पास होती रही। रूपाली को रसोई में माँ की सहायता करना, नित नई डिश बनाना, घर की साज़ सँवार करना बहुत पसंद था, वहीं मुझे बाहर के कामों में पप्पा की मदद करना अच्छा लगता। इतनी सारी भिन्नताओं के बावजूद भी हम दोनों की बहुत पटती। माँ-पप्पा ने कभी भी किसी भी बात पर हमारे बीच पक्षपात नहीं किया था इसलिए हम दोनों बहनों के बीच अपरिमित प्रेम और दोस्ती थी। 

“मेरी दोनों बेटियाँ जब एक साथ कहीं जाती हैं, मुझे उनकी कोई चिंता नहीं होती, दोनों एक दूसरे को भली प्रकार सँभाल लेती हैं।” माँ अक़्सर कहती, “जीवन भर तुम दोनों ऐसे ही एक दूसरे का सहारा बनी रहना, बेटा, एक और एक ग्यारह होते हैं,” माँ हमेशा हमें प्यार से समझाती। 

स्कूल की पढ़ाई ख़त्म करके उच्च शिक्षा के लिए मैंने कॉलेज में एडमिशन ले लिया। रूपाली का मन पढ़ने में बिल्कुल नहीं लगता, बारहवीं की परीक्षा किसी तरह घिसटते हुए पास करने के बाद उसे किसी भी कॉलेज में एडमिशन नहीं मिला। उसे इस बात का कोई मलाल भी नहीं था। फिर भी हम सबने समझा-बुझाकर उसे प्राइवेट परीक्षा देने के लिए राज़ी किया था। 

नया कॉलेज, नए दोस्त और पढ़ाई के साथ मैं व्यस्त हो चली थी। मैं रूपाली को रोज़ अपने कॉलेज के नए-नए क़िस्से सुनाती, वह भी ख़ूब मज़े लेकर सुनती और हँसती। ग्रेजुएशन का वो मेरा आख़िरी साल था। उस साल जाने क्यों और कैसे सहपाठी कुणाल से मेरी घनिष्ठता कुछ अधिक ही हो चली थी। हम अक़्सर ही कॉलेज कैंटीन में या गार्डन में बैठे बतियाते रहते। उसकी मीठी बातों और उसकी आँखों में अपने लिए पनपते प्यार को न सिर्फ़ मैंने, बल्कि मेरे दोस्तों ने भी पहचान लिया था। पहले प्यार के इस अनूठे अहसास को मैंने बड़े जतन से सहेजा था, बस यही एक बात थी, जिसे मैं अपनी प्यारी बहन से भी नहीं कह पाई थी। 

उस दिन मैं और रूपाली शॉपिंग के लिए निकले थे। जी भरकर ख़रीददारी कर हम दोनों कॉफ़ी हाउस में बैठकर थोड़ा सुस्ताने लगे। अचानक सामने कुणाल को देखकर मैं थोड़ा अचकचा गई थी। अपने सहपाठी के रूप में रूपाली से उसका परिचय करवाकर, हम तीनों ने बैठकर बातचीत की, कॉफ़ी पी और लौट गए थे। अगले दिन से ही कुणाल मुझसे कटा-कटा-सा रहने लगा था, उसका बदला सा व्यवहार मेरे लिए गूढ़ पहेली बन गया था, आख़िर कुणाल को क्या हो गया था? जीवन में पहली बार मैंने दिल टूटने के उस असह्य दर्द को महसूस किया था, उन निष्ठुर क्षणों में मैंने स्वयं को नितांत अकेला पाया था, रूपाली से भी अपना दुख साझा न कर पाई थी। 

एक दिन माँ ने बताया, “रूपाली के लिए रिश्ता आया है, धनाढ्य परिवार है, अकूत धन सम्पत्ति है, लड़का अभी पढ़ ही रहा है, कल वो लोग मिलने आ रहे हैं।” 

“अभी से . . .!” आश्चर्य के अतिरेक में मैंने विस्फारित आँखों से पूछा था।

अगले दिन मेहमानों के सामने जब मैं रूपाली को लेकर पहुँची, तो क्षण भर में मुझे मेरे सारे सवालों के जवाब मिल चुके थे। लड़का और कोई नहीं स्वयं कुणाल ही था। मुझे समझते देर नहीं लगी कि उस दिन कॉफ़ी हाउस में कुणाल, रूपाली को देखकर उस अद्वितीय रूप के मोहजाल में क़ैद हो चुका था। उसका मुझसे कटा-कटा रहना, उसका अचानक यूँ बदल जाना, सब कुछ पानी की तरह साफ़ हो गया था। मैंने कुणाल की ओर देखा, उसके चेहरे पर अपराध बोध का लेशमात्र भी नहीं था।

‘आपकी बिटिया बहुत सुन्दर है, हमारे कुणाल ने ज़िद पकड़ ली कि शादी करूँगा तो बस रूपाली से ही’ कुणाल की मम्मी बता रही थी। रूपाली की हल्की सी मुस्कान और लाज से झुकी आँखें उसकी मौन सहमति का द्योतक थी। सबके खिले-खिले चेहरों की आभा में मेरी आँखों और चेहरे पर खिंच आई दर्द की लकीरें अनदेखी ही रह गई। 

घर में ख़ुशियाँ मनाई जाने लगीं। एक कुशल अभिनेत्री की तरह मैंने भी अपने चेहरे पर नक़ली मुस्कुराहट ओढ़ ली थी। लेकिन मेरे हृदय का घाव कितने ही रातों तक आँखों के रास्ते रिसता रहा। ‘क्या वो सब कुछ छलावा था? क्या प्यार ऐसा होता है? इतना अस्थिर, इतना उथला, इतना अवसरवादी? नहीं . . . ये प्यार नहीं था।’ मैंने अपने आप को सँभालने का फ़ैसला कर लिया था। कई बार सोचा घर में सब कुछ बता दूँ, लेकिन इन सब बातों से अनभिज्ञ अपनी प्यारी बहन की ख़ुशियों पर कुठाराघात नहीं कर पाई, आख़िर उसका तो कोई दोष था ही नहीं। 

रूपाली का ब्याह धूमधाम से हो गया था। पहले-पहले जब वह गहनों कपड़ों से लकदक घर आती, तो उसे ख़ुश देखकर मुझे बहुत अच्छा लगता। लेकिन धीरे-धीरे जाने क्यों सुंदर रूपाली के आँखों पर उदासी का क़ब्ज़ा होने लगा, उसकी मनमोहक मुस्कान कहीं खोने सी लगी थी, जिसका भरपाई उसके महँगे कपड़े और गहने भी नहीं कर पाते थे। कई बार पूछने की कोशिश भी की, लेकिन कुणाल हर समय उसके साथ होता, ढंग से बात भी करना मुश्किल होने लगा था। देखते ही देखते दो साल बीत गए मैंने पोस्ट ग्रेजुएशन ख़त्म कर लिया था और सम्मानित पद पर नौकरी करने लगी थी। 

“रूपाली, जब से तेरी शादी हुई है, मैंने मनमुताबिक शॉपिंग ही नहीं की, चल आज शॉपिंग चलते हैं, बस तू और मैं चलेंगे, मैं आकर तुझे पिक कर लूँगी, जल्दी से तैयार हो जा,” एक दिन मैंने रूपाली को फोन किया। रूपाली बहुत देर तक चुप रही फिर फफक कर रो उठी और बस रोती ही रही। घबराकर मैं उसके घर पहुँची तो देखा रूपाली चुपचाप बैठी थी। मेरे आते ही मुझसे लिपटकर कहने लगी, “मुझे अपने साथ ले चल दीपाली, मैं सोने के पिंजरे में क़ैद होकर रह गई हूँ।”

मेरे पूछने पर उसने जो बताया, उसकी मैंने सपने में कल्पना नहीं की थी। उसने कहा कि कुणाल उसे लेकर पागलपन की हद तक पजेसिव है। उसे कहीं भी अकेले आने-जाने की छूट नहीं है, आस-पड़ोस से बात करना तो दूर, कोई घर पर आए तो रूपाली को अपने कमरे से न निकलने की सख़्त हिदायत थी, यहाँ तक कि वो अकेले मायके भी नहीं जा सकती थी, कुणाल हर समय रूपाली पर नज़र रखता था। कुणाल के मन में रूपाली के रूप के कारण एक ग्रंथि घर कर गई थी जिसके चलते वो सदैव आशंकित रहता था। 

“अगर आज तू अपने साथ मुझे नहीं लेकर गई तो अपनी बहन को ज़िंदा नहीं देख पाएगी, अब नहीं सहा जाता, दीपाली,” रूपाली ज़ार ज़ार रो रही थी। 

मैं उसे लेकर घर लौट आई। अपने अहं को ताक पर रखकर कुणाल से बात करने की कोशिश भी की थी। ”हमारे बीच तुम न बोलो तो ही बेहतर होगा,” कुणाल ने दो टूक जवाब दिया था। मैं समझ गई कि जो व्यक्ति स्वयं जैसा होता है, सामने वाले को भी वैसा ही समझता है। मेरी बहन पर हर पल शक करने का कारण भी यही था। उस दिन के बाद रूपाली ने किसी भी हालत में कुणाल के घर न जाने का फ़ैसला कर लिया था। उस बात को भी दो साल होने को आ गए थे। रूपाली ने कुणाल से तलाक़ ले लिया था। खुली हवा में साँस लेना कितना ज़रूरी होता है, रूपाली ने मुझे अहसास करवाया था। 

समय का बदलता स्वरूप ही उसकी पहचान है। जब से मेरी वीरान ज़िंदगी में मेरे कुलीग दीपांकर चक्रवर्ती ने पदार्पण किया था, पिछले सारे घावों के निशान तक मिट गए थे। दीपांकर का हँसमुख, केयरिंग और संवेदनशील स्वभाव मुझे बहुत प्रभावित करता था। मेरा मन उनके सानिध्य में सुकून पाने लगा था। ‘तुम्हारी मुस्कुराहट का एक इंच भी कभी कम नहीं होने दूँगा, मेरा वादा है।’ वे अक़्सर कहते। मेरे हृदय में सुलगती हुई प्रेम धूनी की महक मेरे रोम-रोम से प्रस्फुटित होने लगी थी, जिसको मेरी बहन ने भाँप लिया था और आख़िरकार मुझे रूपाली को दीपांकर के बारे में सब कुछ बताना ही पड़ा था। 

उस दिन मेरा जन्मदिन था, मैं ऑफ़िस के लिए तैयार हो रही थी कि डोरबेल बज उठी। रूपाली जल्दी से बाहर गई और मुस्कुराते हुए अंदर आकर मुझसे कहने लगी, “तेरे 'वो' आए हैं, जल्दी से बाहर आ, तब तक मैं उन्हें बिठा रही हूँ” सुनते ही मुझे बेहद घबराहट होने लगी, पुरानी सारे बातें अनचाहे ही चलचित्र की भाँति मेरी आँखों के आगे से गुज़रने लगीं।
‘क्या दीपांकर भी कुणाल की तरह . . . ’ मैंने अपने आपसे पूछा। ‘दिल टूटने का दर्द अब नहीं सहन कर पाऊँगी, दीपांकर के बग़ैर मैं नहीं जी पाऊँगी’ सोचते हुए मैं दौड़कर बैठक में पहुँची तो दीपांकर ने सहज भाव से मुझे बधाई देते हुए कहा, “आज तुम्हारा जन्मदिन है, तो सोचा तुम्हें पिक करते हुए ऑफ़िस जाया जाए, स्पेशल ट्रीटमेंट!” रास्ते भर दीपांकर बर्थडे पार्टी की प्लानिंग करते रहे।

”आज इतनी गुमसुम क्यों हो?” मुझसे पूछते हुए कहने लगे, “आज पहली बार तुम्हारी बहन को देखा, बहुत भली लड़की है। तुम्हारी बहन, मेरी भी बहन जैसी है। हमारी शादी के बाद वो अकेली पड़ जाएगी। क्यों न हम दोनों मिलकर उसके लिए एक अच्छा सा लड़का तलाश करें?” दीपांकर के ऐसा कहते ही मेरा मन उनके प्रति प्यार और सम्मान से भर गया। मेरी झिलमिल मुस्कुराहट, व्यर्थ की आशंकाओं को निर्मूल साबित करती हुई आँखों के कोरों को भिगोती हुई, पुनः पूरे विश्वास के साथ मेरे अधरों कर विराजमान हो चुकी थी। 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

......गिलहरी
|

सारे बच्चों से आगे न दौड़ो तो आँखों के सामने…

...और सत्संग चलता रहा
|

"संत सतगुरु इस धरती पर भगवान हैं। वे…

 जिज्ञासा
|

सुबह-सुबह अख़बार खोलते ही निधन वाले कालम…

 बेशर्म
|

थियेटर से बाहर निकलते ही, पूर्णिमा की नज़र…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

सांस्कृतिक आलेख

कविता

कहानी

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं