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टन टन टन . . . टन . . . मंदिर की घंटियों की आवाज़ से निरंजन की तंद्रा टूटी, शाम घिर आई थी। हवाओं में हल्की सी ठंडक घुलने लगी थी। शरद ऋतु का चंद्रमा अपने पूरे दल-बल के साथ धरती पर अपनी शीतल ज्योत्स्ना बिखेरने को आतुर हो चला था। हरसिंगार के लाल तीलियों वाले श्वेत पुष्प, दिव्य चाँदनी में इठलाकर और भी मादक हो उठे थे। निरंजन अक़्सर छुट्टी वाले दिन घर के पास वाले इस पार्क में आ जाया करता था। क़रीब ही एक मंदिर था। हरसिंगार के उस चिरपरिचित पेड़ के सामने वाली बेंच पर बैठकर ढोल मँजीरे के साथ आती हुई आरती की गूँज सुनना और पार्क में खेलते हुए बच्चों में अपना बचपन याद करना, निरंजन को बहुत भाता था। 

निरंजन घर जाने के लिए उठा तो जाने कब और कैसे उसके पैर विवेक विहार की ओर मुड़ गए। निरंजन का घर आदित्यपुरी में था। हालाँकि विवेक विहार और आदित्यपुरी दोनों आस-पास बसी हुई कॉलोनियाँ थी, लेकिन आजकल निरंजन यंत्रवत ही थोड़ा घूमकर विवेक विहार से होते हुए ही अपने घर पहुँचने लगा था, जैसे राह में कोई उसका हाथ पकड़कर हर बार उसे अपनी ओर खींच लेता हो। विवेक विहार में एच-27 नंबर का मकान आते ही निरंजन की धड़कनें बेक़ाबू हो जाती और उसकी नज़रें स्वतः ही ऊपर बनी हुई उस खिड़की पर पहुँच जातीं जहाँ शाम के धुँधलके में पारदर्शी पर्दे के पीछे रोज़ किसी लड़की की अस्पष्ट सी झलक दिखाई देती थी। उसे हमेशा लगता जैसे लड़की उसे ही देख रही है और कुछ कहना चाहती है, निरंजन उसे ठीक से देख भी नहीं पाता था। लेकिन पता नहीं क्यों निरंजन उस लड़की को अनदेखा भी नहीं कर पाता था। शाम को काम से लौटते वक़्त वह रोज़ विवेक विहार से ही होकर जाने लगा था और एच-27 नम्बर के मकान के सामने आकर दो मिनट के लिए ठिठक-सा जाता था, मानो कोई तीव्र चुंबकीय आकर्षण उसे ऐसा करने के लिए बाध्य कर रहा हो। कभी उसे महसूस होता कि लड़की उसे देखकर मुस्कुरा रही है, तो कभी उसे लगता कि रुआँसी-सी है, लेकिन कुछ भी स्पष्ट नहीं देख पाता था। 

यह शहर निरंजन का अपना शहर था। निरंजन, संपन्न और संयुक्त परिवार का लाड़ला और होनहार बेटा था। स्कूली शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात् निरंजन आगे की पढ़ाई के लिए दूसरे शहर चला गया था। उच्च शिक्षा प्राप्त कर अपने पैतृक व्यवसाय को ही आगे बढ़ाने के उद्देश्य से निरंजन पुनः अपने घर लौट आया था। प्रतिभावान निरंजन का काम में मन तो लगता था, लेकिन उस खिड़की वाली लड़की के बारे में जानने के लिए वह कुछ उद्विग्न भी रहने लगा था। उसे जाने क्यों महसूस होता कि शाम के समय वो लड़की रोज़ उसके आने की प्रतीक्षा करती है। परन्तु संकोची स्वभाव के कारण वह किसी से कुछ पूछ ही नहीं पाता था। निरंजन का मन एक अजीब से भ्रमजाल में उलझा-सा रहने लगा था। 

धीरे-धीरे एक साल बीतने को आया। रोज़ काम से लौटते समय निरंजन का विवेक विहार से गुज़रना, एच-27 नंबर वाले मकान के आगे दो क्षण रुककर खिड़की पर लहराते हुए पर्दे के पीछे लड़की की धुँधली सी छवि को एकटक निहारकर उसे पहचानने की असफल कोशिश करना उसकी आदत में शुमार हो चला था। यहाँ तक कि छुट्टी वाले दिन भी किसी न किसी बहाने से शाम के समय वो विवेक विहार का चक्कर लगा ही लेता था। 

उस दिन इतवार था, उस अलसाई हुई सुबह जब निरंजन सोकर उठा तो चाचाजी ने उसे लगभग आदेश-सा देते हुए कहा, “निरंजन बेटा, नहा कर तैयार हो जा, मेरे एक परम मित्र ने घर पर मिलने बुलाया है और भोजन भी वहीं करेंगे, तुझे मेरे साथ चलना है।”

निरंजन अपने चाचाजी के साथ हो लिया था। लेकिन चाचाजी के गाड़ी रोकते ही आश्चर्य से निरंजन की आँखें खुली की खुली ही रह गईं। चाचाजी ने विवेक विहार, एच-27 के आगे ही अपनी गाड़ी रोकी थी। अत्यधिक सकुचाते हुए निरंजन चुपचाप चाचाजी के पीछे-पीछे चल पड़ा।

“बेटा, ये मेरे मित्र सदानंद मिश्र हैं,” चाचाजी के परिचय करवाते ही निरंजन ने झुककर उनके पैर छू लिए थे।

“आओ घर दिखाता हूँ,” कहकर सदानंद जी ने उन दोनों को अंदर बुलाया। घर क्या था, पूरा प्रासाद था, बड़े बड़े कमरे, दालान, खिड़कियाँ, आँगन . . . अंत में सदानंद जी उन दोनों को उस कमरे में ले गए जिसकी खिड़की और उसके पीछे खड़ी लड़की अनजाने ही निरंजन के जीवन का हिस्सा बन चुके थे। 

कमरे के अंदर जाते ही एक बड़ी सी फ़्रेम की हुई फोटो दिखाई दी . . . सगाई की फोटो थी शायद, जिसमें एक लड़की किसी लड़के को अँगूठी पहना रही थी। फोटो को देखकर निरंजन हतप्रभ-सा रह गया, उसे महसूस हुआ कि खिड़की वाली लड़की ही फोटो में थी, लेकिन साथ ही उसे जाने क्यों ऐसा भी महसूस हुआ जैसे फोटो वाला लड़का वो स्वयं है। अपनी इस सोच पर उसे स्वयं ही बेहद आश्चर्य हुआ। उसका दिमाग़ तत्काल ही दलीलें देने में व्यस्त हो गया कि हम तो यहाँ पहली बार ही आए हैं लेकिन उसका दिल . . . वो तो दिमाग़ की हर एक दलील को सिरे से नकारता रहा और बस यही एक रट लगाता रहा कि फोटो में दिखने वाला लड़का वो स्वयं है। 

“ये मेरी बिटिया नंदिनी की फोटो है,” सदानंद जी बताने लगे, “मेरी बिटिया की सगाई हो गई थी, नंदिनी और उसका मंगेतर एक दूसरे को प्राणों से भी अधिक चाहते थे। लेकिन ईश्वर को शायद कुछ और ही मंज़ूर था। सगाई के दो दिन बाद मेरे दामाद जी एक रोड एक्सीडेंट में नहीं रहे और ख़बर सुनते ही मेरी बिटिया नंदिनी भी इसी कमरे में हार्ट अटैक से नहीं रही। इस बात को पच्चीस साल बीत गए। नंदिनी की मौत के बाद हम लोग इस मकान में नहीं रह पाए, यहाँ मन ही नहीं लगता था। इस मकान को बंद करके दूसरी जगह शिफ़्ट हो गए थे। ये मकान पच्चीस साल बंद ही पड़ा रहा। अब इतने सालों बाद आए तो हैं, लेकिन हम इसमें रहेंगे नहीं। इसकी मरम्मत करवाकर इसे बेच देंगे।”

निरंजन बुत की तरह खड़ा ही रह गया, उसका चेहरा फक्क पड़ गया मानो किसी ने पल भर में ही सारा रक्त निचोड़ लिया हो। उसके पूरे शरीर में झुरझुरी सी दौड़ गई। ‘तो क्या नंदिनी का सूक्ष्म शरीर इतने वर्षों बाद भी अपनी अधूरी आकांक्षाओं को ढोता हुआ अपने मंगेतर के लिए अंतहीन प्रतीक्षा में रत है? क्या पच्चीस वर्ष पूर्व पिछले जन्म में मैं ही नंदिनी का मंगेतर था? क्या इसलिए शाम होते ही नंदिनी की अतृप्त आत्मा मुझे अपनी ओर खींचने लगती है? क्या आज के भौतिकवादी युग में भी ऐसा प्रेम सम्भव है?’ सोचते-सोचते निरंजन की आँखें तर हो आईं, दो पल के लिए वो संज्ञाशून्य सा हो गया। फिर जैसे-तैसे ख़ुद को सँभालकर धीमे लेकिन स्पष्ट शब्दों में उसने कहा, “अंकलजी ये मकान आप मुझे ही बेच दीजिए। मैं इस मकान को, इस कमरे को और इसमें बसी हुई नंदिनी जी की यादों सदा सँभालकर रखूँगा।” 

आश्चर्य से चाचाजी ने निरंजन को देखा। भावातिरेक में सदानंद जी ने निरंजन का हाथ थामकर उसे गले से लगा लिया था। और निरंजन . . . वो तो बस एकटक उस फ़्रेम की हुई फोटो को देखे जा रहा था, मानो पूछ रहा हो, “अब तो ख़ुश हो न नंदिनी?” 

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