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ये कहानी है अवंतिका की, अनिकेत की और सुगंधा की, उनकी दोस्ती की, प्यार की, कुछ खोने की, कुछ पाने की और कुछ पाकर भी खो देने की। ये कहानी है कुछ अधूरी और कुछ पूरी इच्छाओं की, आकांक्षाओं की, महत्वाकांक्षाओं की और कुछ ऐसी अभिलाषाओं की भी जो पूरी होते-होते भी अधूरी ही रह गईं। 

“ओफ़्फ़ो! मेरी गाड़ी स्टार्ट नहीं हो रही, अनिकेत, ज़रा देखना!” अवंतिका ने ज़ोर से अनिकेत को पुकारा था। दोनों दसवीं कक्षा के मेधावी विद्यार्थी थे।

”देखता हूँ,” बोलकर अनिकेत गाड़ी स्टार्ट करने की असफल कोशिश करने लगा। “ऐसा कर, तू मेरी गाड़ी लेकर अपने घर चली जा, मैं इसे ठीक करवाकर ले आऊँगा।”

अवंतिका और अनिकेत दोनों बचपन से ही बहुत अच्छे दोस्त थे। सुगंधा भी उनकी बहुत अच्छी दोस्त थी। उन तीनों की दोस्ती एक मिसाल थी। 

अवंतिका की छोटी-बड़ी सारी समस्याओं का हल मानो अनिकेत के ही पास था। पढ़ाई का कोई टॉपिक नहीं मिल रहा, चैप्टर समझ नहीं आ रहा, किससे मन-मुटाव हुआ, झगड़ा हुआ, आज नाश्ता अच्छा नहीं बना, टीचर ने बिल्कुल अच्छा नहीं पढ़ाया, आज घर पर डाँट पड़ी, मेरी किताब खो गई आदि आदि . . . आदि, जब तक अवंतिका, अनिकेत से नहीं बता लेती उसे मानो चैन ही नहीं पड़ता था। अनिकेत भी मानो हर वक़्त अवंतिका की बातों को सुनने के लिए और उसकी समस्याओं को हल करने के लिए, अपने सारे कामों को छोड़कर तत्पर रहता। अवंतिका थी बेहद बातूनी और अनिकेत था संजीदा। अवंतिका बोलती रहती और अनिकेत सुनता रहता। 

स्कूल की पढ़ाई ख़त्म हुई। कॉलेज में भी तीनों की दोस्ती का सिलसिला बदस्तूर जारी रहा। ”जल्दी से पढ़ाई ख़त्म हो और मेरा किसी अच्छी जगह सिलेक्शन हो जाए” अवंतिका अपने दिलकश और अल्हड़ अंदाज़ में अक्सर कहती। अनिकेत, सुगंधा और सभी सहपाठियों के दिलों में यही महत्वाकाक्षाएँ थी। ग्रेजुएशन के बाद तीनों ने ही पोस्ट ग्रेजुएशन में एडमिशन ले लिया था। 

“मेरी मँगनी तय हो गई,” एक दिन अवंतिका ने दोस्तों के सामने ऐलान किया था। “बहुत अमीर लोग हैं, बहुत बड़े व्यापारी हैं, बड़ी-बड़ी गाड़ियाँ, बहुत सारी प्रॉपर्टी, महल जैसा घर . . .” चहकते हुए अवंतिका के पैर ज़मीन पर नहीं पड़ रहे थे। सुनकर अनिकेत के आँखों की चमक अचानक दप्प से बुझ गई जैसे किसीने जलते दीपक पर हठात् पानी डाल दिया हो। वह दोस्तों के शोरगुल से कटकर चुपचाप से हट गया। 

“तू तो एक बड़ी जॉब करना चाहती थी ना? तेरे सपनों का क्या हुआ, अवंतिका? अभी तो पढ़ाई भी पूरी नहीं हुई और इतनी जल्दी शादी? थोड़ा सोचकर देख, बहुत जल्दबाज़ी तो नहीं कर रही?” अगले दिन बुझे-बुझे स्वर में अनिकेत ने पूछा था।

“दूर कहाँ जा रही हूँ? इसी शहर में तो हूँ, पढ़ भी लूँगी, इतना अच्छा रिश्ता बार-बार थोड़ी आएगा, बहुत पैसे वाले लोग हैं यार!” अवंतिका ने कहा था। 

“सोच समझकर निर्णय ले रही है ना?” अनिकेत के पूछने पर अवंतिका बस मुस्कुराकर बालों को झटककर चलती बनी थी। 

बुरी तरह आहत अनिकेत गहरी उदासी के अंतहीन सागर में उतरता चला गया। अंतर्मुखी अनिकेत ने अवंतिका से दूरी बना ली थी। संजीदा तो वह पहले से ही था, अब कुछ विचलित-सा, गुमसुम-सा हो गया था।

“अवंतिका, तूने अनिकेत को देखा? कितना मायूस लगता है आजकल? यार, तेरी शादी तय होने के बाद से ही इसकी ये हालत हो गई है। सारा समय तू भी तो उसके नाम की रट लगाती है, उसके बिना रह पाएगी तू? अनिकेत तुझपर जान छिड़कता है यार, और तू है कि . . . तुझे समझ नहीं आता? तू तो बस पैसों के पीछे ही भाग रही है यार। तूने लड़के से अपनी पढ़ाई और करियर के बारे में बात की? यार तेरे जैसी इंटेलिजेंट और एंबिशियस लड़की इतनी बदल जाएगी, कभी सोचा नहीं था!” सुगंधा उसे बार-बार फटकारती, समझाती। लेकिन अवंतिका की आँखों में पड़ा हुआ सुनहरा-रुपहला पर्दा मानो दिन पर दिन और भी चमकीला होता चला गया। उसे न तो अनिकेत की उदासी दिखती और न ही सुगंधा की समझाइश पसंद आती। सबकुछ अनदेखा करके ढेर सारे सपनों की गठरी को सीने से लगाए, अवंतिका शादी करके ससुराल पहुँच गई। 

अवंतिका की ससुराल का माहौल उसके मायके से बिल्कुल अलग था। वहाँ उसके ससुरजी का राज चलता था, संयुक्त परिवार में उनकी कही हुई हर बात पत्थर की लकीर थी। ससुरजी कड़क मिज़ाज के थे। ढेर सारे गहने और महँगे कपड़ों से लकदक अवंतिका का रूप और भी निखर आया था। विवाह के बाद का समय मौज-मस्ती में ही निकल गया। फिर अवंतिका के पति सत्येंद्र ने काम में मन लगाना शुरू किया, वह सुबह घर से निकलता और दिन ढले लौटता। अवंतिका कभी अपनी सास से, कभी ननद से, कभी जिठानियों से बतियाती, घर के छोटे बच्चों के साथ बैठती, खेलती। काम करने को कुछ ख़ास था ही नहीं, घर में नौकर-चाकरों की पूरी फ़ौज थी। जल्दी ही अवंतिका ऊबने लगी, उसे अपना कॉलेज, अपनी पढ़ाई, अपने दोस्त याद आने लगे।

“सुनो, मुझे अपनी पढ़ाई पूरी करनी है, कॉलेज जाना है, बहुत दिन छुट्टी कर ली,” उस दिन सत्येंद्र के घर लौटने पर अवंतिका ने उससे कहा था। 

सुनते ही सत्येंद्र के चेहरे का रंग उड़ गया था, “पिताजी से पूछना पड़ेगा।” धीमे से वह इतना ही बोल पाया। उसे देखकर अवंतिका को बड़ा आश्चर्य हुआ उसे समझ नहीं आया कि आख़िर उसने ऐसा भी क्या कह दिया कि पिताजी से पूछना पड़ेगा, पढ़ाई ही तो करना है। 

“हमारे घर की बहुएँ बाहर नौकरी नहीं करतीं, अवंतिका ग्रेजुएशन कर चुकी है, आगे पढ़ाई की कोई ज़रूरत नहीं है। उससे कहो घर में मन लगाए।” आशीष के पूछते ही उसके पिता ने रौबदार, कड़कती आवाज़ में अपना फ़ैसला सुनाया था जिसे सुनकर अवंतिका मानो आसमान से ज़मीन पर आ गिरी थी। बहुत परेशान हो गई थी अवंतिका।

“मुझे अपनी पढ़ाई पूरी करनी है,” कहकर अवंतिका सत्येंद्र के सामने बहुत रोई, गिड़गिड़ाई। ऐसा नहीं था कि सत्येंद्र अवंतिका को प्यार नहीं करता था। वह उसका बहुत ध्यान रखता था, लेकिन पिताजी के फ़ैसले के विरुद्ध जाने की हिम्मत उसमें नहीं थी।

“प्लीज़ अवंतिका, सिचुएशन को स्वीकार कर लो, एडजस्ट कर लो,” बहुत दुखी मन से उसने अवंतिका को समझाया था। 

अकेली पड़ गई थी अवंतिका। उसकी सारी महत्वाकांक्षाएँ धराशायी होने लगी और सारे सपने बिना आवाज़ किए चूर-चूर होने लगे थे। उसे लगा कि वह हीरे-मोती जड़े सोने के पिंजड़े में क़ैद होकर रह गई है। अपनी व्यथा को हृदय में दफनाकर घुटती रही थी अवंतिका। अनिकेत और सुगंधा से यदा कदा बात कर लेती थी, लेकिन अपना दुख उनके सामने उजागर नहीं कर पाई थी अवंतिका। किस मुँह से बताती? ऐश्वर्य की जगमगाहट भी अवंतिका के सुंदर मुखड़े पर छाई उदासी को दूर कर पाने में निष्फल थी। 

देखते ही देखते अवंतिका के विवाह को आठ वर्ष बीत गए। कहते हैं असंतुष्ट मन, तन को भी अस्वस्थ कर देता है। शायद इसी वजह से या किसी अन्य कारण से, बहुत पूजा-पाठ और डॉक्टरी इलाज के बावजूद इतने वर्षों में भी अवंतिका माँ नहीं बन पाई थी। इस बीच अनिकेत और सुगंधा की पढ़ाई पूरी हो गई और एक प्रतिष्ठित संस्थान में अच्छे पद पर उनकी नौकरी भी लग गई।

“आना है तुझे, हमलोग शादी कर रहे हैं,” एक दिन चहकते हुए सुगंधा ने अवंतिका को फोन किया था।

“हमलोग मतलब?” सुगंधा ने पूछा था।

“मैं और अनिकेत। यार, तेरे जाने के बाद अनिकेत बहुत डिप्रेस्ड हो गया था, उसे सँभालते-सँभालते उसीसे प्यार कर बैठी . . . ” सुगंधा बोले जा रही थी, बताए जा रही थी, लेकिन अवंतिका के कान ही मानो सुन्न पड़ गए थे, उसे कुछ और सुनाई ही नहीं पड़ा। फोन को थामकर, सूखे गले से बस इतना ही बोल पाई, “बधाई हो यार।”

नहीं जा पाई थी अवंतिका उन दोनों की शादी में। सत्येंद्र ने कई बार कहा भी, “तुम्हारे दोस्तों की शादी है, चलते हैं, थोड़ा चेंज हो जाएगा, बहुत दिन से घर से बाहर निकले भी नहीं हैं।” लेकिन जाने क्यों अवंतिका का मन ही नहीं हुआ। एक अजीब सी व्याकुलता ने घेर रखा था उसे। अवंतिका अपने मन से ही पूछती कि आख़िर हुआ क्या है? लेकिन मन की जटिलताओं को समझना इतना आसान न था। सुगंधा ने जाने कितने ही बार उसे फोन किया, उलाहना दिया, लेकिन हर बार अवंतिका ने नए-नए बहाने बना दिए। 

शादी के कुछ समय बाद सुगंधा और अनिकेत काम के सिलसिले में विदेश चले गए। उनकी बेटी का जन्म भी विदेश में ही हुआ। इधर समय के साथ-साथ अवंतिका ने ख़ुद को समेटकर, समझाकर, घर में मन लगा लिया था। माँ तो वह नहीं बन पाई थी लेकिन जिठानी और देवरानियों के बच्चों में अपनी ममता लुटाने लगी थी। सत्येंद्र के साथ ख़ुश रहने लगी थी अवंतिका। समय गुज़रते देर नहीं लगती, सुगंधा और अनिकेत के विवाह को भी सात साल बीत चले थे। 

“अगले महीने हम लोग इंडिया शिफ़्ट हो रहे हैं, कितने साल बीत गए यार तुझसे मिले हुए। कितनी सारी बातें हैं बताने के लिए। सच, बहुत याद आती है।” सुगंधा ने एक दिन फोन पर अवंतिका को बताया था। अवंतिका भी अपने बचपन के दोस्तों से मिलने के लिए आतुर हो उठी थी। 

उस दिन अवंतिका बहुत मन से तैयार होकर सुगंधा और अनिकेत के घर पहुँची थी। दोनों उसके स्वागत के लिए गेट पर ही खड़े थे। सुगंधा ने उसे गले से लगा लिया था। सुगंधा और अवंतिका के साथ-साथ अनिकेत की भी आँखें नम हो उठी थी। अवंतिका को बैठे हुए अभी थोड़ी ही देर हुई थी कि मीठी सी आवाज़ में “मम्मा . . .” बोलती हुई सुगंधा की पाँच साल की बिटिया रिमझिम दौड़ती हुई आई और अवंतिका को देखकर ठिठक गई। अवंतिका ने उस नन्ही बच्ची को देखा तो उसकी आँखें आश्चर्य से फटी की फटी ही रह गईं। उस प्यारी सी बच्ची, रिमझिम का चेहरा हू-ब-हू उसके अपने चेहरे जैसा ही था। उसने बार-बार रिमझिम को देखा, अपनी आँखें मलीं, ‘ऐसा कैसे हो सकता है,’ उसने मन ही मन सोचा। सुगंधा, अवंतिका का चेहरा देखकर ज़ोर से हँस पड़ी। थोड़ी देर बाद अनिकेत, बिटिया को लेकर सामने की दुकान पर चला गया।

“बहुत सारी बातें जमा हो गईं हैं यार, बताने के लिए, अब अगर नहीं बताऊँगी तो पेट ही फट जाएगा,” सुगंधा ने कहा।

“रिमझिम हू-ब-हू मेरे जैसी कैसे है यार?” अवंतिका पूछे बिना नहीं रह पाई। 

ये बात सुनकर सुगंधा हौले से मुस्कुराई फिर धीमे-धीमे कहने लगी, “जब रिमझिम तीन साल की थी तब एक रोड एक्सीडेंट में बुरी तरह घायल हो गई थी, बड़ी मुश्किल से उसे बचाया गया था, लेकिन उसका चेहरा बुरी तरह से ख़राब हो गया था। डॉक्टर के कहने पर हमने उसकी प्लास्टिक सर्जरी करने का निर्णय लिया था। डॉक्टर ने रिमझिम की फोटो माँगी थी ताकि उसका चेहरा पहले जैसा किया जा सके। अवंतिका, अनिकेत तुझे कितना पसंद करता था, कितना प्यार करता था, ये बात मुझसे ज़्यादा और कौन समझ सकता है। तू मेरी भी पक्की सहेली थी और रहेगी, इसलिए जब डॉक्टर ने रिमझिम की फोटो माँगी तो मैंने तेरे बचपन की फोटो दे दी, ताकि हम लोगों को हमेशा तेरे साथ का अहसास रहे। मैं चाहती हूँ कि अनिकेत सदा ख़ुश रहे यार। तू तो अपनी है, इसलिए तुझसे पूछना भी ज़रूरी नहीं समझा यार। मुझसे कोई ग़लती तो नहीं हुई ना? तुझे बुरा तो नहीं लगा ना?” 

सुगंधा की बातें सुनकर अवंतिका की आँखों से झर-झर आँसू बहने लगे, कुछ बोल ही नहीं पाई थी अवंतिका, बस उठकर सुगंधा के गले लग गई। सुगंधा के प्रेम, विश्वास, समर्पण और दोस्ती के आगे ख़ुद को बेहद बौना महसूस किया था उसने, कातर स्वर में बस इतना ही बोल पाई, “रिमझिम मेरी भी बेटी है, है ना सुगंधा?” 

“ज़रूर-ज़रूर यार!” सुगंधा की बात सुनकर उसके हाथों को थामकर बेहद प्यार से मुस्कुरा उठी थी अवंतिका, जैसे किसी बच्चे को उसका मनपसंद खिलौना मिल गया हो।

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