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असमंजस

 

‘चलो, अब तीन दिन छुट्टी है,’ आशुतोष ने सोचते हुए राहत की साँस ली और कार स्टार्ट करके अपर्णा को फोन लगा लिया, “सुन, मेरी तीन दिन छुट्टी है, दोस्तों के साथ मेरे घर के लॉन में धमाल का प्रोग्राम बनाएँ?” 

सुनकर अपर्णा का हृदय नवल पुष्कर की भाँति खिल उठा, “आशु, इस बार की पार्टी तो स्पेशल होगी, तेरा जन्मदिन जो है।” अपर्णा ने मुस्कराकर कहा। आशुतोष, अपने मित्रों को अक़्सर इसी तरह बुलाता। 

आशुतोष और अपर्णा दोनों बाल्यकाल से ही अभिन्न मित्र थे, मानो ईश्वर ने उस इस जोड़ी को जन्म के साथ ही अनंत शाश्वत प्रेम का शुभाशीष दिया था। टिफ़िन, नोट्स और किताबों का आदान-प्रदान करते-करते जाने कब, कहाँ और कैसे दोनों के मन भी एक दूसरे से एकीकृत हो गए, कहा नहीं जा सकता। एक दूसरे के बग़ैर उनका जीवन ही कल्पनातीत था। 

संपन्न परिवार की इकलौती संतान आशुतोष को सुख-सुविधाओं की कोई कमी न थी, ऊपर से प्रतिष्ठित सरकारी नौकरी। विधाता ने मानो आशुतोष का भाग्य सुनहरे पृष्ठों पर रत्नाक्षरों से लिखा था। सहृदय, संस्कारवान और मृदुभाषी आशुतोष के खरे सोने जैसे अंतःकरण की चमक उसके सुमुख को आलोकित करती थी। 

मध्यमवर्गीय परिवार में पली-बढ़ी अपर्णा तीन भाई-बहनों में सबसे बड़ी थी। उसके पिता पं. अरुणप्रकाश जी की पूजा के सामानों की एक पैत्रिक दुकान थी। वे शहर के नामचीन ज्योतिष भी थे। लोग कहते थे कि उनकी बताई हुई बातें अक्षरशः सत्य होती हैं। परन्तु फल कथन बताने के नाम पर किसी से एक नया पैसा भी लेना उनके सिद्धांतों के ख़िलाफ़ था। वे अक़्सर कहते, ‘ये विद्या तो मेरे गुरु का आशीर्वाद है, कुछ देना ही है तो शुभकामनाएँ दीजिए, जन्मों तक वही तो संग चलेंगी, बाक़ी तो सब यहीं धरा रह जाएगा।’ सुंदर, सुशिक्षित, हँसमुख, मिलनसार और व्यवहारकुशल अपर्णा ने भी अपने पिता से ज्योतिष का ज्ञान प्राप्त किया था। 

आशुतोष और अपर्णा की दोस्ती और प्यार पर उनके परिवारों की मौन सहमति की मुहर लगी थी और अब तो उनके विवाह की तैयारियाँ ही ज़ोरों पर थी। दोनों का एक दूसरे के प्रति अत्यधिक प्रेम और लगाव के कारण उनके परिवारों में कुंडली मिलान का विचार व्यर्थ महसूस हुआ था। पं. अरुणप्रकाश जी ने अपनी लाड़ली अपर्णा की कुंडली देखी थी और बिटिया की दोषरहित पत्रिका में दीर्घायु, अखंड सौभाग्य, पति गृह का सम्मान तथा अपरिमित दांपत्य सुख के स्पष्ट योग देखकर निश्चिंत थे। 

विवाह को केवल दस-ग्यारह दिन ही रह गए। आशुतोष और अपर्णा की तो मानो मुँह माँगी मुराद ही पूरी होने जा रही थी। उस दिन स्टोर में कुछ सामान रखवाते हुए आशुतोष की नज़र अपनी दादी के पुराने से सूटकेस पर पड़ी। दादी को गुज़रे एक अर्सा बीत गया था। कौतूहलवश आशुतोष ने सूटकेस खोला, उसमें पुराने कुछ बर्तनों के साथ एक डायरी भी थी। आशुतोष पन्ने पलटने लगा, कुछ भजन, कुछ गाने, कुछ कविताएँ लिखी थीं। एक पृष्ठ पर लगभग पच्चीस नाम और उनके सामने समय भी लिखे हुए थे। केदार 3:55 शाम, हिमाद्री 1:20 दोपहर . . . आदि और अंत में आशु 4:20 सुबह। ‘अरे इसमें तो मेरा भी नाम है’ आशुतोष ने तुरंत समय नोट कर लिया। 

अगले दिन उसे जाने क्या सूझा कि अपने एक जानकार सहकर्मी को अपना जन्म तारीख़, जन्म का स्थान और दादी की डायरी से नोट किया हुआ जन्म समय देकर अपनी कुंडली देखने को कह दिया। सहकर्मी ने बताया, ‘जातक की कुंडली में तो मंगल दोष है। अगर ग़ैर मांगलिक लड़की से इनका विवाह हो जाए तो वैवाहिक जीवन सुखमय नहीं रहेगा तथा जीवनसाथी को परेशानियाँ भी आ सकती हैं।’

आशुतोष बुरी तरह चिंतित होकर घबरा गया। ‘अब क्या करूँ? अपर्णा को बताना ही होगा’ सोचकर उसने अपर्णा को फोन किया, “मिलने आ सकती है क्या? बहुत ज़रूरी बात करना है?” 

“दस दिन बाद शादी है यार, तब तक के लिए रुक भी जाओ, इतना ज़रूरी क्या है?” अपर्णा थोड़ी नाराज़ हुई।

“प्लीज़ थोड़ी देर के लिए आ जा,” आशुतोष के कहने पर अपर्णा ने झट से गुलाबी साड़ी पहनी, हल्की सी लिपस्टिक लगाई और दर्जी की दुकान तक जाने का बहाना करके कॉफ़ी हाउस जा पहुँची। फोन पर घंटों आशुतोष से बातें करने वाली, उसे बचपन से जानने वाली चुलबुली अपर्णा ने आज जाने क्यों, आशुतोष के सामने आते ही लाज का आवरण ओढ़ लिया था। ख़ुशी से दमकते, शर्मीले से मुखमंडल पर विश्वास की चमक से भरी भोली आँखों से उसने आशुतोष को नज़र भरकर देखा और सतरंगी सपनों को समेटे पलकें झुका लीं। आशुतोष, अपर्णा की उस भुवनमोहिनी छवि को जाने कितने ही पलों तक निर्निमेष निहारकर हृदय में क़ैद करता रहा, फिर भावातिरेक में उसके हाथों को थामकर रुँधे गले से इतना ही बोल पाया, “अपर्णा, तेरे लिए मेरा प्रेम सीमातीत है, तेरे बिना मैं जीवित ही नहीं रह पाऊँगा, मुझसे कभी दूर मत जाना।” 

“कभी नहीं आशु, तेरे बिना इस संसार में मेरा भी कोई अस्तित्व नहीं रहेगा,” अपर्णा ने बहुत धीमे-से मीठे स्वर में कहा। फिर वे दोनों कुछ देर यूँ ही बैठे रहे।

“देर हो जाएगी आशु, माँ बहुत डाँटेंगी, मुझे जाना होगा,” कहकर अपर्णा उठ खड़ी हुई।

“ठीक है, अब तो शादी वाले दिन ही मुलाक़ात होगी,” आशुतोष की बात सुनकर अपर्णा ने मुस्कराकर कहा, “तेरी ये बहुत ज़रूरी बात मुझे सदा याद रहेगी।”

‘कैसा अनर्थ करने जा रहा था मैं’ अपर्णा के जाते ही आशुतोष ने स्वयं को धिक्कारा, ‘मैं, हमारे सपनों को कभी बिखरने नहीं दूँगा, अपनी अपर्णा के मुस्कुराते चेहरे पर दुख का लेशमात्र भी नहीं आने दूँगा, मैं सदा उसे इसी तरह बहुत ख़ुश देखना चाहता हूँ।’ आशुतोष ने अपने आप से वादा किया, ‘जिस विधाता ने बचपन से ही हमारी जोड़ी बनाई है, वही आगे भी इसे सँभालेंगे।’ मन ही मन स्वयं को तसल्ली देकर आशुतोष ने मंगली वाली बात अपने सीने में दफ़न कर ली। 

धूमधाम से विवाह संपन्न हो गया। अपर्णा जैसी बहू के आते ही घर की रौनक़ कई गुना बढ़ गई। आशुतोष के पैर ज़मीन पर नहीं पड़ते थे, लेकिन मंगली वाली बात याद करके यदाकदा अनचाहे ही एक अनजानी आशंका और अपराध बोध से घिर जाया करता। इसके चलते वो अपर्णा का बहुत ध्यान रखता। अपर्णा को ज़रा-सा ज़ुकाम भी होता तो ही घबरा जाता, उसे कहीं भी अकेले नहीं जाने देता, अपर्णा के रसोईघर में जाते ही परेशान हो जाता। अपर्णा को अच्छा तो लगता पर कभी कभी बहुत उलझन भी होती। “आशु, इतनी फ़िक्र मत किया कर, मुझे कुछ नहीं होगा।” अपर्णा की बात सुनकर आशुतोष चुप लगा जाता। देखते ही देखते दो साल बीत गए। 

एक दिन घर में सब बैठकर बात कर रहे थे तभी किसी बात पर आशुतोष की माँ ने कहा, “हमारे आशु का जन्म शाम 7:15 का है।” 

सुनते ही आशुतोष के कान खड़े हो गए, उसने माँ से फिर समय पूछा, माँ ने फिर 7:15 शाम ही बताया। आशुतोष जल्दी से जाकर दादी की डायरी उठा लाया और पृष्ठ खोलकर माँ को दिखाया, “दादी ने मेरा जन्म 4:20 सुबह क्यों लिखा है, माँ?” 

देखकर माँ हँस पड़ी। “ये तो तेरी दादी के अपने चचेरे, ममेरे, फुफेरे भाई-बहनों के नाम हैं, उन नामों के साथ उनके जन्म समय भी लिखे हैं, यहाँ आशु का मतलब आशादेवी हैं जो उनकी बहन थी।”

माँ की बातें सुनकर आशुतोष ऐसे चौंका जैसे किसी ने उसे गहरी नींद से पानी के छींटे डालकर जगाया हो। हैरानी से दो क्षण निष्क्रिय ही बैठा रहा। फिर होश सँभालकर अपर्णा से कहा, “ज़रा मेरी कुंडली देखना कैसी है?” 

“देख लिया, सब अच्छा है, मेरे पतिदेव जो ठहरे,” अपर्णा ने चार्ट देखते हुए चुटकी ली।

“फिर भी देख न यार, कोई दोष तो नहीं है? मंगल दोष देख,” आशुतोष ने बेसब्री से पूछा।

“अरे नहीं है बाबा, दिमाग़ ठीक तो है?” अपर्णा के आश्चर्य से ऐसा कहते ही आशुतोष का सारा अपराध बोध और बेचैनी पल भर में ही अनंत में विलीन हो गईं। उसके मन से कई टन का बोझ हट गया था। आज आशुतोष ने मानो कई युगों के उपरांत चैन की साँस ली थी। अनजानी आशंकाओं के गहन मेघों को परे हटाकर, सुख का भास्कर अपने पूरे ओज के साथ, आशुतोष के हृदय को अपनी दिव्य प्रभा से उज्जवल कर चुका था। 

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