मनवा हाय अकुला जाए
काव्य साहित्य | कविता डॉ. सुकृति घोष1 Apr 2025 (अंक: 274, प्रथम, 2025 में प्रकाशित)
बिना कहे और बिन बतलाए, शाम सुहानी ढलती जाए
पल दो पल भी रुक न पाए, मनवा हाय अकुला जाए
नदिया कलकल बहती जाए, लहर-लहर उल्लास जगाए
सिंधु मिलन के स्वप्न सजाए, मनवा हाय अकुला जाए
मौसम-मौसम बीता जाए, आस का सावन मन तरसाए
ऋतुराज भी ठहर न पाए, मनवा हाय अकुला जाए
नित-नित बदलें चंद्र कलाएँ, नित नूतन चितवन हर्षाए
घोर गहनतम राज़ छुपाए, मनवा हाय अकुला जाए
कभी सँजोए कभी डुबोए, प्रीत की कश्ती गोते खाए
कभी रुलाकर भी बहलाए, मनवा हाय अकुला जाए
पथिक डगर में चलता जाए, क्षण-क्षण अपनी उम्र गँवाए
कामनाओं की प्यास जगाए, मनवा हाय अकुला जाए
समय का पहिया चलता जाए, बिना थके ही बढ़ता जाए
क्योंकर इसको चैन न आए, मनवा हाय अकुला जाए
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