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कर्म का सिद्धांत और ज्योतिष

 

हमारे वेदों में निहित ज्योतिष का अनमोल विज्ञान पूर्णतः कर्मफल के सिद्धांत पर आधारित है। भौतिकी के सर्वविदित नियम के अनुसार, प्रत्येक क्रिया की प्रतिक्रिया अवश्यंभावी है। उसी प्रकार हमारे द्वारा किए गए अच्छे बुरे सभी कर्मों का हमें प्रतिफल भोगना ही पड़ता है। कर्मों की गति को न तो कोई टाल सकता है और न ही कोई बदल सकता है। यहाँ तक कि हमारे द्वारा किए गए अच्छे या बुरे विचार अथवा अच्छे या बुरे कथन भी हमें प्रतिफल देने हेतु बाध्य हैं।

भौतिकी के ऊर्जा संरक्षण के नियमानुसार “ऊर्जा केवल एक रूप से दूसरे रूप में परिवर्तित हो सकती है, यह कभी भी उत्पन्न या नष्ट नहीं की जा सकती।” भौतिकी के ही एक दूसरे सिद्धांत के अनुसार, “कार्य और ऊर्जा एक दूसरे के तुल्य होते हैं।” अतः जन्म जन्मांतरों से हमारे स्थूल शरीर द्वारा किए गए समस्त अच्छे और बुरे कर्म (मनसा-वाचा-कर्मणा) ऊर्जा के रूप में हमारे सूक्ष्म शरीर में संचित होते रहते हैं। जिन्हें हम संचित कर्म के नाम से जानते हैं जो कभी भी किसी भी प्रकार से नष्ट नहीं हो सकते और समय आने पर अपनी प्रतिक्रिया से हमें प्रभावित अवश्य करते हैं। परन्तु कहाँ, कब और कैसे हमें इनका फल मिलेगा, उस परम पिता परमात्मा के अतिरिक्त और कोई नहीं बता सकता। हमें सिर्फ़ कर्म करने का ही अधिकार है। तभी तो गीता में कहा है:

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि॥

हमारे संचित कर्मों की कल्पना एक गट्ठर के रूप में की जा सकती है जिसमें कुछ हीरे-जवाहरात, कुछ स्वर्ण, कुछ पत्थर, कुछ कोयले के टुकड़े हों। इन संचित कर्मों के विराट गट्ठर में से भी एक छोटी पोटली नियति द्वारा बनाई जाती है, जिनका प्रतिफल हमें इस जन्म में प्राप्त होना है। इस छोटी पोटली में हमारे प्रारब्ध कर्म होते हैं जो इस जन्म में हमारा भाग्य बनाते हैं। ग्रह और नक्षत्र कुंडली में स्वतः ही ऐसी स्थिति में विराजमान हो जाते हैं ताकि हमारे प्रारब्ध कर्मों का प्रतिफल हमें प्राप्त हो सके। मानो नियति ने प्रारब्ध कर्मों की पोटली ग्रह और नक्षत्रों को सौंपकर उन्हें कर्मों का प्रतिफल देने हेतु निर्देशित किया हो।

इन जन्म में हमारे लिए तय किए गए प्रारब्ध कर्मों का प्रतिफल हमें मिलना निश्चित है। पूर्व से संचित इन कर्मों पर हमारा कोई अधिकार नहीं होता। उदाहरण के रूप में महान् ज्योतिषाचार्य वराहमिहिर से जुड़ी प्रसिद्ध घटना का उल्लेख करना श्रेयस्कर होगा। उज्जैन के राजा विक्रमादित्य चंद्रगुप्त द्वितीय के राजदरबार में मिहिर नामक एक विद्वान, उनके नवरत्नों में से एक थे। मिहिर एक महान् गणितज्ञ, खगोलविद् तथा ज्योतिषाचार्य थे। जब राजा के घर पुत्र ने जन्म लिया तो मिहिर ने दुखी होकर भविष्यवाणी की, कि राजा के पुत्र की आयु अठारह वर्ष ही है तथा उसकी मृत्यु का कारण वराह (जंगली सूअर) होगा। मिहिर ने राजपुत्र की मृत्यु का समय भी बताया। उचित समय आने पर राजा ने पुत्र को सातवें मंज़िल पर कड़े पहरे में रखा जहाँ जंगली सूअर के आने की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। लेकिन होनी तो होकर ही रहती है। राजपुत्र को कमरे में बैठे-बैठे घबराहट सी होने लगी तो वह आँगन में चला गया और वहाँ फहराया हुआ राज्य का ध्वज अचानक गिर पड़ा और उसमें लगे हुए वराह के सींग ने उसके प्राण ठीक उसी समय ले लिए जिसकी भविष्यवाणी मिहिर पहले ही कर चुके थे। ध्वज में लगा हुआ वराह का सींग राज्य के सम्मान का प्रतीक था। तत्पश्चात् राजा ने मिहिर को राज्य का सर्वोच्च सम्मान वराह प्रदान किया। तब से उनका नाम वराहमिहिर पड़ गया।

ज्योतिष शास्त्र के ज्ञान से हमें यह जानकारी प्राप्त हो जाती है कि हमारा अच्छा या बुरा समय कब आने वाला है अथवा हमारा भाग्य हमें जीवन में क्या अच्छा और क्या बुरा प्रदान वाला है और कब प्रदान करने वाला है। ज्योतिष शास्त्र हमें मानसिक रूप से परिस्थितियों के लिए तैयार करने में अहम् भूमिका निभाता है। अच्छी और बुरी दोनों परिस्थितियों में किए गए कर्म ही हमारे अधिकार क्षेत्र में आते हैं। दिन प्रतिदिन अपने विवेक से किए जाने वाले यही वो कर्म हैं जो संचित कर्म के रूप में जमा हो जाते हैं। वर्तमान में किए जाने वाले इन कर्मों को क्रियमाण कर्म कहा जाता है। ज्योतिष शास्त्र के ज्ञान के द्वारा हम आगामी परिस्थितियों से पूर्व से ही अवगत हो सकते हैं तथा स्वयं को मानसिक रूप से तैयार करके ऐसे उत्तम कर्मों की ओर अग्रसर हो सकते हैं जिससे हम भविष्य के लिए अच्छे कर्म संचित कर सकें।

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