अवकाश का अहसास
काव्य साहित्य | कविता डॉ. सुकृति घोष15 May 2022 (अंक: 205, द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)
अवकाश चाहिए मुझको बंधु, चार दिवस अवकाश चाहिए
व्यर्थ दंभ का परित्याग कर, रिश्तों में नव जीवन भर दूँ
छोड़ झूठ का काला दामन, सच का मंजुल हाथ थाम लूँ
कुछ ऐसा अहसास चाहिए, मुझको भी अवकाश चाहिए
बिसराकर मैं घड़ी की टिक टिक, इत्मिनान से दो पल जी लूँ
रात चाँदनी सागर के तट पर, जगमग तारे गिन गिन डोलूँ
कुछ ऐसा अहसास चाहिए, मुझको भी अवकाश चाहिए
अख़बारों की ख़बर भूलकर, गीत ग़ज़ल कविता में भीगूँ
हर्ष का पादप रोप हृदय में, प्रीत सलिल से उसे सींच दूँ
कुछ ऐसा अहसास चाहिए, मुझको भी अवकाश चाहिए
साँझ समय उपवन में जाकर, नव कुसुमों से गपशप कर लूँ
नियम क़ायदे ताक़ पर रखकर, सावन की रिमझिम में तर लूँ
कुछ ऐसा अहसास चाहिए, मुझको भी अवकाश चाहिए
इंद्रधनुष के रंग छिड़ककर, आँचल को मैं झिलमिल कर लूँ
फिर लहराकर चलते चलते, तपते सूरज को शीतल कर दूँ
कुछ ऐसा अहसास चाहिए, मुझको भी अवकाश चाहिए
अवकाश चाहिए मुझको बंधु, चार दिवस अवकाश चाहिए
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