एक ख़्वाब सा देखा है, ताबीर नहीं बनती
काव्य साहित्य | कविता कुमार लव3 May 2012
तैर रहा था मैं कहीं
जब वह था तुम्हारे साथ,
एक बरछी मुझे लगी
और खींच लिया गया मैं
किसी जहाज़ पर।
और फ़िर एक दिन
सीने से लगा था मैं,
उसने अपने हाथ से
हमारी नाभि अलग की,
और ग़ायब हो गए
सदा के लिए।
कुछ सपने देखे थे,
पर तस्वीर कुछ सिकुड़ गई है,
तुम भी दम भर में
कुछ कर न पाओगे।
पहले,
बच्चा साथ रखती,
भली जो दिखती थी,
बच्चा साथ हैं,
क्या बुरा कर लेगी?
और अब,
दम भर में ही।
तेज़,
बहुत तेज़ दौड़ा,
ख़ून की बूँद आ रुकी
आँख में,
पर फिर भी दिख रही हो तुम,
टोकती हुई, हमेशा-सी।
“कुछ नया करो तो,
सब कैसे जानें कि
अच्छा है या बुरा?”
“हम्म“
आवाज़ में कभी
आँसुओं को सुना हैं?
छोटे-छोटे शब्द, दूर दूर,
नीली आँखें, ख़ुश्क, सूखे गाल।
ठक-ठक! ठक-ठक!
नहीं खोलना दरवाज़ा।
ठक-ठक! ठक-ठक!
क्या करोगे मुझे देख कर?
वही पुरानी कोशिश,
तुम-सा नहीं हूँ—
फिर भी तुम्हें हक़ नहीं,
काट-काट कर देखने का,
एक-एक हिस्से को
अलग-अलग कर के
मेरे अनुभवों के।
तुम सोचते हो
मुझे समझ पाओगे!
हा!
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