कुमार लव के चतुर्पंच – 001
काव्य साहित्य | कविता-मुक्तक कुमार लव15 Jan 2023 (अंक: 221, द्वितीय, 2023 में प्रकाशित)
चतुर्पंच:
नया काव्यरूप। 4 पंक्तियों का व्यंजनापूर्ण मुक्तक।
प्रत्येक पंक्ति में 5 शब्द। पंक्ति 1, 2, 4 में तुक का निर्वाह।
कुल 5×4=20 शब्दों की कविता।
1.
संयम का जीवन-एक बंदीगृह
अनर्गल व्यय-एक और कारागृह
शीशी में उतार लो जीवन
मैं पीकर तोड़ूँ सारे गृह।
2.
तेरा कमरा, समय भागा घबराकर
ठिठका खाकर मेज़ से ठोकर
नाख़ून उखड़ आया था उसका
गया लाल स्याही में नहाकर।
3.
यथार्थ ने बाड़ थी लगाई
बस छिड़ने वाली थी लड़ाई
क़ब्रें खोद रही थी फंतासी
इनसानियत ने मुँह की खाई।
4.
बहतीं जहाँ नदियाँ लार की
बातें बस उस पार की
उगा शायद कुछ नाबदान में
ख़ुशबूदार हवाएँ इस बार की।
5.
सत्तर वर्षों से पनपती मक्खियाँ
उड़ा रही थीं उनकी खिल्लियाँ
केक पर उनके आ बैठीं
कहा—अब तुम मनाओ ख़ुशियाँ।
6.
धरती का कठोर सीना चीरकर
ले आया मुझे अपने घर
सड़ने लगी तो जिला दिया
माँ का गरम ख़ून पिलाकर।
7.
सहज रोते हैं सब यहाँ
आ गिरे हो तुम जहाँ
लुढ़ककर ऊँचे ऊँचे आसमानों से
पर हँसोगे देख पूरा जहाँ।
8.
अपनी मुठ्ठियों में चाँद भरने
हाथ थे जो चंद उठने
नन्हे सितारों की आग देखकर
बस रुक गए दिल थामने।
9.
लोग चलते हैं पाँव घसीटकर
बतियाते भी हैं बस फुसफुसाकर
तंतुधारी राक्षस जागते हैं जब
बलि चढ़ा देते हैं फुसलाकर।
10.
मानुषखोर कुत्ते घूमते सड़कों पर
रात को निकलना मत बाहर
झुंड में करते हमला वे
बंदूक भी नहीं तुम पर।
11.
बंदूकधारी मानव होते हैं जहाँ
ख़ूब गिरती हैं लाशें वहाँ
ढेर लग जाते हैं ऊँचे
अमन नहीं रहता फिर कहाँ?
12.
कूल्हे का कटलेट खा लें
कहीं वे कीड़े न आ लें
शवों को चट करने वाले
हमारा खाना न पचा लें।
13.
शवभक्षी कीड़ों की भीड़ उभरती
हर चौराहे पर चुपचाप रेंगती
जुलूस में आए लोगों को
हज़ारों लाल आँखों से घूरती।
14.
गाँव-जंगल मिलते हैं जहाँ
बच्चे नहीं मिलते अब वहाँ
मिल जाया करती हैं अक़्सर
नंगी, सिर कटी कुछ बोरियाँ।
15.
सपनों की चिड़ियाएँ उड़ गईं
घोंसलों सी आँखें छोड़ गईं
न नींद है, न सपने
कौवा-झुर्रियाँ तक झड़ गईं।
16.
गंध मुद्रित नए पन्नों की
ध्वनि उड़ती कुछ रसीदों की
फिर से जग उठी मुझमें
तलब कड़कते कुछ नोटों की।
17.
मेरी हथेली कुछ देर जाँचकर
कहा उसने उदास सिर हिलाकर
कल दिन में आना बेटा
बस रातभर में भाग्य बदलकर।
18
की वर्षों लंबी नफ़रत जिससे
हाथ मिलाया देर तक उससे
बस आख़िरी दिन था वह
जा रहा था दूर हमसे।
19.
गोद में जब रखकर सिर
मूँदी पलकें एक बार फिर
अनजाने ही तपता एक आँसू
गिरा गाल पर मेरे, थिर।
20.
होटल की चाय हलकी गरम
बिस्तर भी नहीं ज़्यादा नरम
लुटाने तो आँसू ही हैं
पालें क्यों पैसों का भरम?
21.
गर्मियों की बारिश में नीली
सिगरेट हो गई मेरी गीली
धुआँ भी उसका गीला गीला
विचार गीले, यादें कुछ सीली।
22.
उसकी रोटी थी कुछ रूठी
सुबह की ट्रेन लगभग छूटी
खिड़की पर सिर टिकाए मुझे
लगी सारी संभावनाएँ ही झूठी
23.
एक चूहा कटोरी पंजों वाला
खोद रहा था गहरा नाला
सुबह तक का समय दो
बोला, मेरे खोलते ही ताला।
24.
अपने पंजों में सिर झुकाए
सोच रहा था सेंध लगाए
काली क़िस्मत में उसकी, कुछ
नहीं था बूट के सिवाए।
25.
तीस का है एक कुँआरा
बिल्ली सा मिमियाता है बेचारा
हँसता है ख़ुद पर कभी
कभी ढूँढ़ता है बेवक़्त सहारा।
26.
रात देखे अपने मैले हाथ
कटोरी पंजे वाले के साथ
कल की सबसे बड़ी ख़ुशी-
ख़ूब धो चमकाना अपने हाथ।
27.
धीरे धीरे फ़ासला बढ़ता रहा
धीरे धीरे अजनबी बनता रहा
एक रात बिस्तर पर पड़े
सावन सारा चुपचाप रिसता रहा।
28.
आँखों के पीछे से सूखी
त्वचा के नीचे से रूखी
झाँक रही एक कीट चेतना
हरित, क्रमित, रुष्ट और भूखी।
29.
जो सपने मर जाते हैं
मर कर कहाँ जाते हैं?
कौन पालता है उन्हें जिन्हें
वे अनाथ छोड़ जाते हैं?
30.
सपना जिसे स्वर्ग मिलता है
मरकर क्या ख़ुश रहता है?
जब लाश पड़ी सड़ती उसकी
जैविक चक्र कौन रचता है?
31.
और का स्वर्ग सहती है
लार की नदी बहती है
शायद उगा कुछ नाबदान में
साथ लटकी चमगादड़ कहती है।
32.
देख रहा था वह भौचक्का
एक जब आया था धक्का
भक्तों की भीड़ थी जिसने
रौंदा सब, कुछ न रख्खा।
33.
मृत्यु जब आएगी पास चलकर,
अपनी हथेली में प्यार भरकर
मेरे माथे पर उड़ेल देना,
ठिठक न रहेगी कोई डरकर।
34.
क्यों याद आते हैं मुझे
बाण कुछ विष में बुझे?
कभी तू, कभी मैं चलाऊँ
पर मौत न आए तुझे।
35.
“साँप खाता है यह मोर“
जान कर अब लगे घनघोर
बिल्ली-सा लगता था पहले
करता है नाचता जो शोर।
36.
एक गुलाब भेजा छुपा सबसे
कि बच जाएगा मुरझाने से
साँस भर लौटा दिया तुमने
महकता मेरा बग़ीचा अब तुमसे।
37.
कान लगाए बैठा दरवाज़ा भेड़कर
खटखटाओगी इक बार तो मुड़कर
न खटखटाया, न ही मुड़ीं
बस चल पड़ीं टाँके उधेड़कर।
38.
सुबह सुबह हल्का सा ख़ुमार
ओस के मोती आँखभर बेशुमार
आ गई, स्वीटा, तेरी याद
उषा के रथ पे सवार।
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