मानव मशीन है
हास्य-व्यंग्य | हास्य-व्यंग्य कविता ज़हीर अली सिद्दीक़ी15 Nov 2020 (अंक: 169, द्वितीय, 2020 में प्रकाशित)
भूखे और प्यासे से
दूरी बनाता है
फाँका भर अनाज देकर
फ़ोटो खिंचवाता है॥
मित्रों, परिजनों से
दूरी बढ़ाता है
महत्वपूर्ण दिवसों पर
स्टेटस लगाता है॥
किसी को जाने बग़ैर
दोस्त बनाता है
सोशल मीडिया पर ही
रिश्ता निभाता है॥
सामने बोलने से
छुपता-कतराता है
फ़ेसबुक और इंस्टा पर
दिल से बतियाता हैं॥
सारी गतिविधियों से
अवगत कराता है
सच्चाई की दुनिया से
दूरी बढ़ाता है॥
रोना और हँसना भी
मैसेज में दिखाता है
आँख और मुँह से
रोता न हँसता है॥
ऐसा क्यों लगता
मानव मशीन है
मशीनों की माफ़िक
निर्देशों में लीन है॥
संवेदना शरीर की
अंतरिम मज़मून है
शारीरिक सामर्थ्य भी
लगता मरहूम है॥
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
कविता
- आँसू
- आत्माएँ भी मरती हैं . . .
- उजाले में अँधेरा . . .
- उड़ान भरना चाहता हूँ
- ए लहर! लहर तू रहती है
- एक बेज़ुबां बच्ची
- कौन हूँ?
- गणतंत्र
- चिंगारी
- चुगली कहूँ
- जहुआ पेड़
- तज़ुर्बे का पुल
- दीवाना
- नज़रें
- पत्रकार हूँ परन्तु
- परिंदा कहेगा
- पहिया
- मरा बहुरूपिया हूँ...
- मैं पुतला हूँ...
- लौहपथगामिनी का आत्ममंथन
- विडम्बना
- विषरहित
- सड़क और राही
- हर गीत में
- ख़ुशियों भरा...
- ग़म एक गम है जो...
हास्य-व्यंग्य कविता
हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
सामाजिक आलेख
नज़्म
लघुकथा
कविता - हाइकु
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं