ग़म एक गम है जो...
काव्य साहित्य | कविता ज़हीर अली सिद्दीक़ी15 Jul 2019
मशग़ूल ज़िन्दगी से परे,
फटे पन्ने जोड़ रहा था
गम से,
याद आयी रंज-ओ-ग़म की
जो शायद डायरी के पन्ने में क़ैद थे,
मानो बुरे और हसीं दोनों लम्हो को
एक धागे से पिरो रहा था
करता भी क्यों नहीं,
इसे ही तो जीवन काल कहते हैं
सुन ज़िंदगी!
बुरे लम्हे जीवन के धागे को
झकझोरते हैं, थपेड़े मारते हैं
कमज़ोरियों को तोड़ने की कोशिश करते हैं
ताकि,
हम मज़बूत ऐसा बनें कि
कमज़ोरी हिला न सके
मानसिक संतुलन बिगाड़ न सके
परन्तु
हमें तो लत है हसीन लम्हों की
जो अय्याशियों का सोफ़ा है
लगता तो सुख है पर
मगर नहीं,
ग़म एक गम है
जो हसीन लम्हों को बाँध के रखती है
सही मायने में हम गगन से गुज़रने वाले
गुमनाम और बदनाम बाशिंदे हैं
जो बिना नाम के ज़िंदा हैं
वाह रे ज़ालिम दुनिया!
कितना बदनाम कर दिया है
वरना इसकी वजह से
कीचड़ में भी कमल खिलते हैं।
(ग़म=दुख; गम=गोंद)
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