मरा बहुरूपिया हूँ...
काव्य साहित्य | कविता ज़हीर अली सिद्दीक़ी1 Jun 2021 (अंक: 182, प्रथम, 2021 में प्रकाशित)
मैं एक हूँ...
यह मेरा भरम है
देखने से महज़ एक हूँ
सही मायने में अनेक हूँ
मक्कार का रूप हूँ
व्यभिचार सा कुरूप हूँ
हक़ मारने वाला हूँ
कीचड़ उछालने वाला हूँ
बुरा सुनने वाला हूँ
बुरा देखने वाला हूँ
और तो और....
बुराई करने वाला भी हूँ
इतने सारे रूप फिर
एक कैसे हो सकता हूँ?
मैं जीवित हूँ...
यह भी तो भरम है
भूख से तड़पते की
पुकार सुनकर
पानी से तरसते की
गुहार सुनकर,
मासूमों को ज़ुल्म से
लड़ते देखकर,
अनसुना कर देता हूँ
अनदेखा कर देता हूँ
अँखों पर पर्दा डाल लेता हूँ
अंगों को गतिहीन और
अन्तरात्मा को सुला देता हूँ
नींद की गोली खाकर
मरे हुए की निशानी हूँ...
किस बात की जीवंतता?
जब मैं लाशों के साथ
खिलवाड़ कर सकता हूँ
अंतिम संस्कार के जगह
नदी में फेंक सकता हूँ
पता चलने पर
रेत से ढक सकता हूँ
परन्तु कब तक छुपेगा
हवा चलने पर,
रेत उड़ने पर,
लाश दिखने लगती है
पंछी और जानवर
दौड़-दौड़कर नोचने लगते हैं
मैं तो न सुनता हूँ, न देखता हूँ
न ही हरकत में आता हूँ
कौन सा रूप दिखाऊँ
बहुत रूप हैं मेरे, पर मरे हुए
तो हुआ ना, मरा बहुरूपिया हूँ...
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