मैं पुतला हूँ...
काव्य साहित्य | कविता ज़हीर अली सिद्दीक़ी15 Sep 2019
पुतला देख पशु-पक्षी डरते हैं
जानदार समझकर...
नुक़सान नहीं पहुँचाते फ़सलों को -
ईश्वर का स्वरूप मानकर,
बुरे कर्मों को अंजाम देने से डरते हैं।
मैं पुतला हूँ... परंतु बेहद लाचार
परन्तु मुझे देखकर तो
ख़ुद के क्रांतिकारी विचार भी
मानो काल के गाल में समा जाते हैं।
बुरे विचार और कर्मों को
बुरा बोलने के बजाय
वर्चस्व की पैरवी करता हूँ...
भूख, प्यास बढ़ती तो है पर
दूसरों के हक़ मारने की।
विचारों को विकलांग बनाकर
विकलांगता की गुहार लगा रहा हूँ।
ज़मीर की खाल उधेड़कर,
बेशर्मी के ढोल पर चढ़ाकर
सशक्त बनने का राग अलाप रहा हूँ,
नीलाम कर रहा जागीर को
जो पुरखों से वंशानुगत प्राप्त थी।
काल कोठरी में अन्तरात्मा को
धोखा देने की कोशिश कर रहा हूँ
मानो गन्दगी कर, बीमारी न फैलने की
अवधारणा विकसित कर रहा हूँ॥
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