विडम्बना
काव्य साहित्य | कविता ज़हीर अली सिद्दीक़ी1 Apr 2021 (अंक: 178, प्रथम, 2021 में प्रकाशित)
बादल देख प्रसन्न हो जाता
ख़ुशी के आँसू बहाता है
बिन बारिश भी फ़सल उगाये
कर्ज़ तले दब जाता है।
ख़ुश हो जाता अन्न उगाकर
भूखा वही सो जाता है
चिंता में फँसकर अक़्सर
मौत के मुँह चढ़ जाता है।
ख़ुशी-ख़ुशी जो औरों का
रहने का ठिकाना बनाता है
बाढ़ में मैंने देखा अक़्सर
घर उसका बह जाता है।
सिखा दिया चलना जिसने
सबक़ सिखाया जाता है
अपनों की ही बस्ती में
ग़ैर वही हो जाता है।
कोख में पाला है जिसने
उसे प्यार बताया जाता है
नफ़रत से अंदर का दीपक
अक़्सर बुझाया जाता है।
स्वर्ग-नरक के चक्कर में
दुनिया का चक्कर काटता है
क़दमों तले जिसके ज़न्नत
विडम्बना– दूर हो जाता है।
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