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उत्पत्ति से लेकर अनबन तक

सर्वाधिक मान्यता प्राप्त "बिग बैंग सिद्धांत" के मुताबिक़ ब्रह्माण्ड के उद्गम का ताल्लुक़ महाविस्फोट से है। इस सिद्धांत को जॉर्ज हेनरी लेमैत्रे द्वारा सैद्धांतिक आधार पर स्थापित किया गया तथा बाद में ऐडविन हबल द्वारा इसकी पुष्टि की गई। इस सिद्धांत के अनुसार घटित महाविस्फोट में अनंत ऊर्जा का उत्सर्जन हुआ। वैज्ञानिकों का मानना है कि यह ऊर्जा इतनी अधिक थी कि ब्रह्मांड आज तक फैलता जा रहा है। मान्यता के अनुसार, शुरुआत में जब द्रव्यों से पूरा स्थान घिर गया तब इसका तापमान लगभग सौ खरब बिलियन डिग्री सेल्सियस के आसपास था। द्रव्यों, जैसे धूल और गैसों में अथाह ऊर्जा के कारण तीव्र गति से घूमने लगे मसलन केंद्रीय स्थान बहुत गर्म हो गया फलस्वरूप सूर्य की उत्पत्ति हुई। ऐसा माना जाता है कि घूमते द्रव्यों (धूल और गैस के गोले) के किनारों से बड़े-बड़े टुकड़े टूट-टूटकर गिरने लगे और आठ ग्रहों का निर्माण हुआ तथा सौरमंडल अस्तित्व में आया।

इस प्रकार, पृथ्वी साढ़े चार खरब वर्ष पहले एक विस्फोट के फलस्वरूप अलग हुई। समय के साथ पृथ्वी ठोस चट्टान में तब्दील हो गयी। चूँकि यह रूप धूल और गैस के संघनन और सिकुड़न के प्रकिया के अंतर्गत हुआ इसीलिए इसका तापमान लगभग बारह सौ डिग्री सेलसियस था। इस तापमान पर जीवन के किसी भी प्रारूप का होना असंभव था। धरती पर कुछ था तो वह चट्टानें, नाइट्रोजन गैस, कार्बनडाई ऑक्साइड गैस, जलवाष्प। लाखों वर्षों के बाद बाहरी सतह या यूँ कहें कि पृथ्वी की परत ठंडी हुई। उसके पश्चात धरती का तापमान सामान्य होने लगा और नमक तथा पानी का विकास हुआ।

इसके साथ ही धरती पर जीवन की उत्पत्ति का आरंभ हुआ। वह भी समुद्र में एक कोशकीय जीवों से जिसमें बैक्टेरिया प्रमुख है। इसके उपरांत ऑक्सीजन नामक जीवनदायिनी गैस की उत्पत्ति हुई जिसका सूत्रधार स्ट्रोमेटोलाइट नामक बैक्टीरिया था। यह बैक्टीरिया सूर्य की किरणों के उपस्थिति में भोजन बनाते वक़्त सहउत्पाद के तौर पर ऑक्सीजन का निर्माण किया। धीरे-धीरे ऑक्सीजन की प्रचुर मात्रा इतनी हो गयी जो मानव जीवन को आधार दे सके। समय का पहिया घूमता गया दिन बड़े होने लगे और तापमान भी तीस डिग्री सेलसियस के आसपास आ गया। इसके बाद एक सुपरकॉन्टिनेंट जिसे रोडिनिया कहा जाता है का निर्माण हुआ। बाद में ज्वालामुखी विस्फोटों के कारण यह दो महाद्वीपों साइबेरिया और गोंडवाना में तब्दील हो गया। पृथ्वी पर ऑक्सीजन की प्रचुर मात्रा होने के पश्चात, प्रमुख रासायनिक अभिक्रिया के माध्यम से ओज़ोन परत का निर्माण हुआ जोकि की सूर्य की पराबैंगनी किरणों को सोखने का काम करती हैं। समय के साथ इस गैस की परत मोटी हो गयी। कई प्रकार के पेड़-पौधों अस्तित्व में आये और जलीय जीव जंतुओं का विकास हुआ।

शायद अभी भी प्रकृति को जीवन मंज़ूर नहीं था। साइबेरियन महाद्वीप से लावा निकलने के फलस्वरूप सारे विकसित जीवों का ख़ात्मा हो गया। इस लावा से सल्फ़र डाइऑक्साइड का उत्सर्जन हुआ जो बारिश के साथ मिलकर सल्फ़्यूरिक अम्ल में तब्दील हो गया और सम्पूर्ण समुद्री जीवों के अंत का कारण बना। लावा और ज्वालामुखी विस्फोट के कारण दोनों महाद्वीप फिर से जुड़ गए और पेंगिया नामक सुपरकॉन्टिनेंट अस्तित्व में आया। समय के साथ अम्लीय वर्षा का असर ख़त्म हुआ। पानी नीला हो गया जिसके कारण पृथ्वी को नीला ग्रह कहते हैं। तापमान सामान्य हो गया। लोगों का मत यह है कि इसके बाद डायनासोर अस्तित्व में आये परंतु उसी समय ज्वालामुखी विस्फोट और प्लेटों के खिसकने के कारण सुपरकॉन्टिनेंट कई महाद्वीपों में तब्दील हो गया और डायनासोर का अंत हो गया। समय चक्र आगे बढ़ा और सब कुछ सामान्य हो गया। इसके बाद एककोशिकीय फिर बहुकोशकीय तथा पेड़-पौधे अस्तित्व में आये। स्तनधारियों तथा होमोसेपियंस अस्तित्व में आना ही वर्तमान का प्रारम्भ था। यह तो है पृथ्वी और मानव जीवन के अस्तित्व की कहानी है। पृथ्वी और अन्य जीवों के अस्तित्व में आने तक होमोसैपिएंस का नामो-निशाँ नहीं था। यह सब कुछ प्राकृतिक बदलाव का परिणाम था। पृथ्वी का भौगोलिक परिदृश्य प्रकृति के मर्ज़ी के अधीन होता है ना कि हम मनुष्यों के।

पृथ्वी पर डायनासोर का ख़त्म होना यह दर्शाता है की प्रकृति को विनाशकारी प्रजाति जो अप्राकृतिक थी पसंद नहीं। सुपरकॉन्टिनेंट का बँटना भी कहीं न कहीं स्थायित्व का द्योतक है। लावा और ज्वालामुखी विस्फोट भी भौगिलिक परिदृश्य के अधीनस्थ हुआ ताकि हम वर्तमान तक पहुँच सके। सूर्य का अस्तित्व भी ख़ास मक़सद से हुआ ताकि सम्पूर्ण ब्रह्मांड को ऊर्जा मिल सके जो विज्ञान के थर्मोनुक्लेअर रिएक्शन पर आधारित है जिसके फलस्वरूप कई मिलियन इलेक्ट्रान बोल्ट की ऊर्जा मिलती है और सम्पूर्ण विश्व को प्रकाशित करता है। पेड़ पौधों का विकास हुआ ताकि मनुष्यों को जीवनदायिनी ऑक्सीजन मिल सके। इस प्रकार ब्रह्मांड में उपस्थित प्रत्येक पहलू का कोई न कोई महत्व है जो कि सुपर पॉवर प्रकृति के दायरे में आता है।

वर्तमान परिदृश्य की बात करें तो मानव प्रकृति के प्रत्येक गतिविधि में दख़ल दे रहा है। प्राकृतिक से कृत्रिम का जाल बुनता जा रहा है। ख़ुद की ख़ुशी के लिए अप्राकृतिक गतिविधियों को अंजाम दे रहा है। ऐसे हानिकारक रसायनों का निर्माण कर रहा है जो इस सृष्टि के विनाश के सिवाय कहीं तालमेल नहीं खाते। जंगलों को काट कर वन्य जीवों को बेदख़ल कर रहा है। महासागरों में जहाँ से जीवन की उत्पत्ति हुई उसे हानिकारक पदार्थों से प्रदूषित कर रहा है। ओज़ोन परत में, जो सूर्य की पराबैंगनी किरणों को सोखती है, अपनी गतिविधियों से छेद कर रहा है जिसके बिना आज का परिदृश्य संभव ही नहीं था। या यूँ कहें कि यह परत न होती तो जीवन संभव ही न होता।

सही बात तो यह है कि प्रकृति से ही मनुष्य का अस्तित्व हुआ और आज वह अनुसंधान के नाम पर अकड़ दिखा रहा। ख़ुद को प्रकृति के अधीन न मानकर उसे अधीन करने का यथासंभव प्रयास कर रहा है। ख़ुद के विकसित होने का दावा कर रहा है जोकि निराधार है। हे मानव! यदि ग़लतफ़हमी के आईने से देख रहा है तो आईना निकाल कर ख़ुद के अस्तित्व की तथ्यात्मक आकलन कर। मानव अस्तित्व के लिए प्रकृति ने कितने परिवर्तन किए है विचारपरक है। इस सर्वशक्तिमान की सहनशीलता जब-जब भंग हुई तब-तब करवट बदली और महविनाश का तांडव देखने को मिला। शायद हमें करवट बदलने तक नहीं जाना चाहिए अन्यथा हमारे साथ-साथ अन्य जीवधारी भी विनाश और प्रलय के हाथ चढ़ जायेंगे।

इसे ही कहते हैं प्रकृति की मानव से अनबन। शायद इस तरह के अनबन ही थे उन सभी प्राकृतिक आपदाओं के पीछे जिसने आज तक मानव के फ़र्ज़ी विकसित होने को बेनक़ाब कर दिया। यदि हम केवल बीसवीं सदी की ही बात करें तो इसमें इस अनबन के चलते अनगिनत जानें गयी हैं। उदाहरण के तौर पर, १९३१ की बाढ़ जिससे तक़रीबन चार से चालीस लाख जानें गयीं, इसी तरह १९७० के चक्रवात में पाँच लाख से ज़्यादा, २०१० के भूकंप में तीन लाख, १९२० के भूकम्प में ढाई लाख, २००४ की सुनामी में दो लाख, १९९१ के चक्रवात में सवा लाख जानें गयीं। अगर हम महामारी की बात करें तो उसका परिणाम और भी विनाशकारी रहा है।

अगर महामारी (COVID -19 से पहले) की बात करें तो, १५१९ ईस्वी में फैले स्माल पॉक्स से लगभग ५-८ मिलियन, परन्तु १६३३ में इसी महामारी से २० मिलियन, १८६० में प्लेग से १२ मिलियन, १९१८ में फ़्लू से ३०-५० मिलियन जानें (वैश्विक स्तर) जा चुकी हैं ।
 
दि प्रिंट में प्रकाशित लेख के मुताबिक़, महामारी COVID -19 के कारण किये गए लॉकडाउन में वन्य जीवों को सामान्य जगहों पर देखा गया है जहाँ वे इंसानों के आवाजाही की वज़ह से सामान्यतः दूरी बनाये रखते थे। यदि भारत की बात करें तो उत्तराखंड के गलियों में सांभर हिरण, नोएडा में नीलगाय, मुंबई के पारसी कॉलोनी में मोर, मुंबई के मरीन ड्राइव में डॉल्फिन, केरल के कोजहिकोडे में कस्तूरी बिलाव, ओड़िसा के एक समुद्र तट पर ओलिव रिडले कछुआ, कर्नाटक के बाज़ार में जंगली भैंसा, पटना में आर्मी के एयर बेस के पास लेओपार्ड देखे गए हैं। भारत ही नहीं विश्व के विभिन्न प्रांतों जैसे कैलिफ़ोर्निया के खेल के मैदान में जंगली टर्की, सान फ्रांसिस्को के गलियों में कयोटि, पोलैंड के कस्बे में हिरण, पेरिस और फ्रांस की गलियों में जंगली सूअर, बार्सिलोना और स्पेन के सड़कों पर जंगली भालू देखे गए हैं। दि इकोनॉमिक्स टाइम्स की एक ख़बर के मुताबिक़ चीन में प्रदूषण पर नियंत्रण तथा वायुमंडल उत्पन्न नाइट्रोजन डाई ऑक्साइड का स्तर भी गिरा है। ऐसा माना जाता है कि वैश्विक स्तर पर भी वायु प्रदूषण में भारी गिरावट भी आई है। दूसरी पृष्ठभूमि में देखा जाय तो प्रकृति अपना सौंदर्य पाने का रास्ता ख़ुद-बख़ुद अख़्तियार कर लेती है उससे भले ही मानव जीवन अस्त-व्यस्त हो। वर्तमान में कोरोना वायरस इसका ज्वलंत उदाहरण है जिसके समक्ष विश्व के सम्पूर्ण राष्ट्र हाथ खड़े कर लिए है। यदि हमें अस्तित्व में बने रहना है तो प्रकृति को सुपर शक्ति और पालनहार मानना पड़ेगा एवं उसके अनुरूप ख़ुद को नियंत्रित रखना पड़ेगा वरना इस शक्ति को करवट बदलने में देरी नहीं लगती। यह मेरा व्यक्तिगत विचार है यह सारी गतिविधियाँ कहीं न कहीं अनबन के कारण ही हुई हैं। इसीलिए हम सभी को इस अनबन से बचना होगा।

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