नज़रें
काव्य साहित्य | कविता ज़हीर अली सिद्दीक़ी15 Sep 2022 (अंक: 213, द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)
ख़ुदग़र्ज़ बना मैं घूम रहा
ख़ुद में ही मैं मशग़ूल रहा
मक़सद से वाक़िफ़ होते ही
पाया नज़रों से दूर खड़ा॥
मुझसे ग़लती हो जाते ही
नज़रें अक़्सर झुक जाती हैं
झुकते ही मन द्रवित होता
नयनों से नज़र बदलते हैं॥
यदि बात नहीं हो पाती है
नज़रें अक़्सर मिल जाती हैं
पलकें अक़्सर उन राहों में,
कुछ बात नई कह जाती हैं॥
यदि रास नहीं उन राहों पर
जिनसे अक़्सर मैं गुज़र रहा
उन राहों को बिन कोसे ही
क़ुर्बान हुआ और पलट गया॥
रिश्तों का मायना समझ लिया
ख़ुद से ख़ुद को मैंने दूर किया
ग़ैरों में ख़ुद की चाह लिए
भीगे नयनों से निकल पड़ा॥
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