अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा यात्रा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

ख़ुद को कोस रहा है

ग़ुरूर किस बात का
ख़ुदायी दावा कर बैठा
मान लिया कि,
मैं ताक़तवर और निडर हूँ...
आदम की औलाद हूँ...
चरिंद और परिंद से बेहतर
सारे मख़लूक़ात में आला हूँ
हुक़ूमत तुम नहीं
कायनात  बनाने वाले के हाथ में है
फिर क़ुदरती चीज़ों पर
हक़ किस बात का ?
कमज़ोर, मजबूर, बेसहारा से
चरिंद के माफ़िक सुलूक क्यों?
मुल्क़ तो, कभी मज़हब के नाम पर
इंसानियत का गला घोंटने लगा
मरने और मारने का आदी हो गया
कभी वसूलों का,
तो कभी अक़ीदह का...
क़त्ल करने लगा
परिंदों का पर और चरिंदों का घर
छीनकर क़ैदी बनाया...
अपना समझ बाँटवारा किया...
समन्दर, दरिया और आसमां का

लेकिन आज
जब क़ुदरत ने करवट बदली,
सब कुछ उल्टा लगने लगा
शान और गुमान, गुमनाम हो गया
ख़ुद क़ैदी लगने लगा हूँ
अपने करतूतों से...
कमज़ोर महसूस कर रहा हूँ
ख़ुद को कोस रहा है
गिड़गिड़ा रहा हूँ, चीख़ रहा हूँ
वजूद की भीख माँग रहा हूँ...

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

1984 का पंजाब
|

शाम ढले अक्सर ज़ुल्म के साये को छत से उतरते…

 हम उठे तो जग उठा
|

हम उठे तो जग उठा, सो गए तो रात है, लगता…

अंगारे गीले राख से
|

वो जो बिछे थे हर तरफ़  काँटे मिरी राहों…

अच्छा लगा
|

तेरा ज़िंदगी में आना, अच्छा लगा  हँसना,…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता

हास्य-व्यंग्य कविता

हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी

सामाजिक आलेख

नज़्म

लघुकथा

कविता - हाइकु

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं