कल आना
कथा साहित्य | लघुकथा ज़हीर अली सिद्दीक़ी15 Mar 2020 (अंक: 152, द्वितीय, 2020 में प्रकाशित)
सूरज की लालिमा पहाड़ों के आग़ोश में लुका छिपी खेल रही थी। चरवाहे पशुओं को चराकर घर लौट रहे थे। पक्षी आशियाने के लिए पंखों में अंतिम जान भर रहे थे। दिन भर के कड़े परिश्रम के बाद श्रमजीवी वर्ग घर को रुख़ कर रहा था। मैं शीतकालीन छुट्टियों में घर आया हुआ था। माँ के हाथ का बना खाना खाने, बहन के साथ लूडो खेलने के अलावा होम वर्क और मित्रों के साथ घूमना मेरे दिनचर्या का अहम हिस्सा था। नीलगाय, जंगली सूअर और अन्य जानवरों से खेत की रखवाली करने का ज़िम्मा माँ ने फ़िलहाल मुझे ही दे रखा था। घर से तक़रीबन दो सौ मीटर की दूरी पर खेत था। मेरे घर से एक पगडण्डी सीधे खेत को जाती थी। रास्ते में एक स्वतंत्रता सेनानी का मज़ार बना हुआ था। मैं वहाँ अक्सर रुक जाता हूँ और देश के इस योद्धा को नमन करता हूँ। इक्के-दुक्के सवाली इस आस में बैठे रहते थे कि कोई व्यक्ति शहीद की इस मज़ार पर सिर झुकाने आएगा। मुझे याद है उम्रदराज़ लोगों की एक-आध टोली ज़रूर आती और सवालियों को भोजन कराती थी। मैं गोधूलि बेला में एक झोला लेकर खेत की ओर निकल पड़ता। खेत पहुँच मटर की फलियाँ तोड़ने में जुट गया क्योंकि घर पर माँ इंतज़ार कर रही थी। अँधेरा हो चुका था। गाँव की एक दादी जो उस रास्ते से गुज़र रही थीं देखकर रुक गयीं।
दादी माँ ने पूछा, "कारे बचवा इतने ठंडी में घर क्यों नहीं गया अब तक।"
"माँ बस थोड़ी देर में पहुँच जाऊँगा।"
दादी माँ ने चेतावनी दी, "जल्दी निकल जा जंगली जानवर बहुत घूमते रहते हैं। तेरे हाथ में पतले डंडा के सिवा कुछ है भी नहीं।"
"हाँ, माँ जी निकला अभी।"
मैं दादी के जाने के बाद झोला उठाकर टॉर्च की मद्धम रोशनी में पगडण्डी से जा रहा था। मज़ार से दस क़दम पहले एक आवाज़ सुनाई दी, "कल आना"।
मैं डर गया था लगा क़िस्से कहानियों वाले भूत की आवाज़ है। डरता भी क्यों न मज़ार जंगल के बीचों-बीच बना था और पगडण्डी वहीं से गुज़रती थी। सोचा दौड़कर निकल जाऊँ। फिर याद आया हरिया के पालतू कुत्ते का, जो अक्सर दौड़ते लोगों को काट लेता था। मैं दबे पाँव मज़ार पहुँचा तो एक सवाली नज़र आया जो पास के कुत्ते को बोल रहा था - "कल आना, खाने को कुछ नही है आज। आज कोई भी श्रद्धालु नहीं आया मज़ार पर। रात काट ले। आजा कम्बल में घुस जा। कहाँ जाएगा रात काली स्याह की भाँति पसर गयी है।"
आज समाज की सच्चाई से अवगत हुआ कि धार्मिक स्थलों पर मजमा और स्वतंत्रता सेनानी के मज़ार पर सन्नाटा भी होता है, जिसने अपना सब कुछ समर्पित किया वतन के वास्ते। ’शहीदों के मजारों पर लगेंगे हर बरस मेले, वतन पे मरने वालों का बाक़ी यही निशां होगा..’ का औचित्य ही समझ नहीं आ रहा?
मैंने मटर से भरा झोला सवाली को दे दिया। इस उद्देश्य से कि दो जीवधारी भूख के प्रकोप से बच जाएँ। घर पहुँचकर माँ को सारा वाक़या बयाँ किया।
माँ बोली. "शाबाश बेटा, तुमने एक आदमी के साथ एक अनबोल को भी भूखा रहने से बचाया है। यही है समर्पण की असली विचारधारा जो सभी धर्मों से ऊपर की अवस्था है।"
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