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पहली बेंच से आख़िरी बेंच तक

 

जुलाई का महीना आते ही स्कूल के दिन याद आने लगते हैं, मैं उन दिनों बहुत उत्साहित रहती थी। जब स्कूल खुलते थे, मन में ख़ुशी की भावना रहती थी। अब मुझको नयी किताबें पढ़ने को मिलेंगी। नया बैग लेकर स्कूल जाऊँगी, कक्षाएँ भी बदली रहती थीं। 

गर्मी की छुट्टियों के बाद सहेलियों से मुलाक़ातें होगीं। पिछली कक्षा में कौन कितने अंकों से उत्तीर्ण हुआ है, जिज्ञासा मन में रहती थी। वैसे; तो पहली जुलाई को सभी स्कूल खुल जाते थे।

मैं अपनी सहेलियों के साथ पहले बेंच पर बैठना पसंद करती थी। मेरी कक्षा में, पढ़ाई में सबसे तेज़ विनीशा, कला विषय में मीनू, बीना एक जैसी थीं। हिंदी, संस्कृत, गृह विज्ञान, समाजशास्त्र में मैं (चेतना) विनीशा के बराबर थी। अंग्रेज़ी विषय भी हम सहेलियों का ठीक ही था। 

उस समय मैं बारहवीं कक्षा में थी। मेरे कॉलेज का नाम  था आदर्श इंटरमीडिएट कॉलेज जो जौनपुर ज़िले से बक्सा थाना के मध्य शंभूगंज में स्थित है। उस समय कॉलेज के प्राचार्य शिवानंद सिंह और प्रबंधक लाल प्रताप सिंह थे। 

हम चारों सहेलियों को पहली बेंच पर एक साथ बैठना अच्छा लगता था, पहली बेंच पर हमीं लोग बैठते थे। अध्यापक जब भी कोई प्रश्न करते थे, हम लोग बताने के लिए एक साथ हाथ ऊपर उठाते थे। आज जब याद करती हूँ, तो सोचती हूँ कि कॉलेज के दिन कितने अच्छे थे। मेरी और तीन सहेलियाँ (शिल्पी, कुमकुम, डिंपल) कक्षा के आख़िरी बेंच पर बैठती थीं। 

मध्य बेंच पर, सीमा, सरिता, सपना, प्रतिमा, ममता, कंचन, रत्ना, नीरल, श्रद्धा आदि लड़कियाँ बैठती थीं। 

मैंने 1998 में इंटर की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद ‘तिलकधारी महाविद्यालय (जौनपुर)’ में बी.ए. में दाख़िला ले लिया। विषय का चुनाव पहले अपनी माता जी के कहने पर हिंदी, अंग्रेज़ी, दर्शनशास्त्र किया था। मेरी माता जी का बहुत मन था। कि मैं अंग्रेज़ी विषय से एम.ए. करूंँ। लेकिन, मैंने एंट्रेंस एग्ज़ाम देने के बाद अंग्रेज़ी विषय के स्थान पर शिक्षा शास्त्र विषय ले लिया। मैं चाहती थी कि आगे चलकर शिक्षा शास्त्र से मास्टर्स ऑफ़ आर्ट्स की डिग्री लूँ। 

मेरा अंग्रेज़ी विषय न लेने का कारण एक ही था , मुझे इंग्लिश में व्याख्या करना कठिन लगता था। लेकिन, उस समय महाविद्यालय में शिक्षाशास्त्र विषय से एम.ए. नहीं था। इसलिए, मुझे हिंदी विषय का चुनाव करना पड़ा। 

विषय मिलने की वजह से एम.ए. की कक्षा में एक बार फिर मैंने और शिल्पी दो साल एक साथ पढ़ाई की। हमेशा की तरह से शिल्पी आख़िरी बेंच पर बैठती थी और मुझे भी अपने साथ बैठने के लिए कहती थी। 

शिल्पी की बचपन की सखियाँ डिंपल, कुमकुम ने बी.ए. के बाद पढ़ाई छोड़ दी थी। तीनों सखियाँ एक ही गाँव (मड़ई) की थीं। कभी तीनों ने एक दूसरे का नाम से नहीं पुकारा। विद्यालय में भी बड़की सखी (शिल्पी), मँझली सखी (कुमकुम), छोटकी सखी (डिंपल), एक दूसरे को आज भी यही कहकर पुकारती हैं। 

शिल्पी के बैग में खाने के लिए कुछ न कुछ ज़रूर रहता था। पीछे से धीरे-धीरे खाने की सामग्री जैसे; अमरूद, इमली, नाशपाती, लड्डू इत्यादि एक दूसरे के द्वारा मुझ तक पहुँचाती थी। जिस दिन मैं उसके पास बैठ जाती थी, चलती कक्षा में कुछ ऐसे शब्द बोल जाती थी कि मुझको उसके शब्दों पर हँसी बहुत आती थी। मैं रोकने का प्रयास करती थी। कभी उसके आगेवाली सीट पर बैठना ख़तरे से ख़ाली नहीं रहता था जैसे; चिकोटी काटना, पीछे से एक दूसरे का दुपट्टा बाँधना आदि। 

हमारी कक्षाओं में हिंदी साहित्य के लेखक डॉ. सुनील विक्रम सिंह (जिनका चर्चित उपन्यास ‘काँपता हुआ इंद्रधनुष’ (२००५) व ‘ताजमहल के आंँसू’ और इनकी एक कहानी संग्रह ‘तेरी कुडमाई हो गई?’ भी है), डॉ. विनोद सिंह, डॉ. माधुरी सिंह, डॉ. सरोज सिंह, डॉ. शीला सिंह के व्याख्यान होते थे। 

समय के साथ मुझ में भी बदलाव आया। मेरी रुचियाँ भी बदलीं। कक्षा में कौन कहाँ बैठेगा? जैसे लगता था, कुछ बेंच फ़िक्स हो गए थे। 

ब्लैकबोर्ड के सामने से मध्य में पहली बेंच पर, विनीता, सुनीता, दूसरी बेंच पर, ज्योति, लवली, शालिनी, आख़िरी बेंच पर, अखिलेश बैठता था। दाहिने से पहली बेंच पर, सुनील दूसरी बेंच पर, दीपचंद, राजेश, संदीप, राम यश, विजय।

बायें से, पहली बेंच पर आकांक्षा, मंजू कभी दूसरी, तीसरी, चौथी बेंच पर। मेरे बैठने का स्थान निश्चित नहीं था। मुझे किसी भी बेंच पर जगह मिल जाती थी मैं वहीं पर बैठ लेती थी और मेरी बहन (मेरे ताऊजी की लड़की) माया भी साथ में रहती थी। जिस दिन मंजूलता, ज्योति भी कक्षा में आती थीं तो हमारे साथ एक ही बेंच पर बैठती थीं। आख़िरी बेंच पर शिल्पी रहती थी। मुझे सभी सहेलियों के साथ बैठने में अच्छा लगता था। यहीं से मुझमें विशेष रूप से बौद्धिक विकास हुआ। 

अब मुझे आख़िरी बेंच पर बैठना अच्छा लगने लगा था। पीछे बैठने पर पूरी कक्षा दिखती थी। मेरी दृष्टि सीसीटीवी की कैमरे की तरह सभी दोस्तों पर रहती थी। कुछ तो गर्दन कबूतर की तरह घुमाते थे, कुछ तो तिरछी नज़र से देखती थीं। मुझसे सबसे ज़्यादा उपहास शिल्पी करती थी। 

वक़्त के साथ कुछ के चेहरे तो याद हैं पर, मैं उनका नाम भूल रही हूँ। 

कुछ के नाम इसलिए याद हैं क्योंकि; वे कक्षा में बहुत सक्रिय थे, कुछ पढ़ने में अच्छे थे तो कुछ सिर्फ़ प्रश्न ही करते थे ‌‌। सबकी अपनी विशेषता थीं। 

अब पहली बेंच से आख़िरी बेंच तक की चिर स्मृतियाँ आज के समय में केवल, सुनहरी यादें बनकर रह गईं हैं। 

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