अच्छा! तुम ही हो!
काव्य साहित्य | कविता चेतना सिंह ‘चितेरी’1 Jun 2025 (अंक: 278, प्रथम, 2025 में प्रकाशित)
अच्छा! तुम ही हो!
लेती रहती हो,
औरों से मेरी ख़बर।
अच्छा! तुम ही हो!
पूछती रहती हो
ग़ैरों से मेरा घर है किधर।
अच्छा! तुम ही हो!
रखती हो,
जो मुझ पर नज़र।
अच्छा! तुम ही हो!
आती हो मेरे पीछे,
जाता हूँ मैं जिधर।
अच्छा! तुम ही हो!
करती हो मुझसे प्यार,
पर, कहने से डरती हो।
अच्छा! तुम ही हो
कर दो प्रेम का इज़हार,
करता हूँ मैं इकरार
तुम्हारे सिवा कोई नहीं है,
अच्छा है! तुम ही तुम हो!
मैं भी करता हूँ स्नेह अपार।
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
कविता
- अच्छा! तुम ही हो!
- अभी कमाने की तुम्हारी उम्र नहीं
- अमराई
- आशीर्वाद
- कुछ तो दिन शेष हैं
- कैसी है मेरी मजबूरी
- कैसे कहूंँ अलविदा–2024
- कौशल्या-दशरथ नंदन रघुनंदन का अभिनंदन
- गौरैया
- घर है तुम्हारा
- चाँद जैसा प्रियतम
- जन-जन के राम सबके राम
- ज़िंदगी की रफ़्तार
- जीवन मेरा वसन्त
- दीपाली
- दुःख के बादल
- नूतन वर्ष
- पिता
- प्रसन्न
- बरसते मेघों की पुकार
- बहे जब जब पुरवइया हो
- मछली
- महोत्सव
- मांँ
- मेरी कहानी के सभी किरदार स्वावलंबी हैं
- मेरी बात अधूरी रह गई
- मेरी ख़ुशियांँ, मेरे घर में
- मैं चेतना हूँ
- मोहब्बत की दास्तान
- याद हूँ मैं
- वक़्त
- शतरंज की चाल
- शिक्षा से ही ग़रीबी दूर होगी
- शून्य
- संघर्ष में आनंद छुपा है,/उसे ढूंँढ़ लेना तुम!
- सच कहते हैं लोग
- सरगम
- हम अपनों के बिन अधूरे हैं
- हे संध्या रुको!
कहानी
स्मृति लेख
चिन्तन
किशोर साहित्य कविता
आप-बीती
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं