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मोहब्बत की दास्तान

मैंने जिसे चाहा, 
उसने चाहा किसी और को, 
जिसके लिए मैं तड़पी, 
वह तड़पा किसी और के लिए, 
मैंने जिसे बेपनाह प्यार किया,
उसने प्यार किया किसी और को, 
मैं जिसके लिए रोई, 
वह रोया किसी और के लिए, 
मैंने जिसे चाहा, उसने चाहा किसी और को। 
 
एकतरफ़ा मोहब्बत मैंने की, 
एकतरफ़ा मोहब्बत उसने भी की, 
दर्द दोनों को एक जैसा हुआ, 
क़ुसूर इसमें दिल का हुआ, 
मैं जिस पे मर मिटी, 
वह मर मिटा किसी और पे, 
मैंने जिसे चाहा, उसने चाहा किसी और को। 
 
जाने कब मोहब्बत दोस्ती में बदली 
पता ही नहीं लगा, 
धीरे-धीरे अंत: उर मस्तिष्क में 
चेतना प्रकाश फैलने लगा, 
उसकी चेतना मुस्कुरा कर कहने लगी—
थाम लो! मेरा हाथ, 
जीवन के पथ पर दूंँगी तेरा साथ, 
अकेले तुम भी! ना रहो! 
अकेले हम भी! ना रहे, 
 
दोनों दोस्ती निभाने लगे, 
एक दूसरे की आंँखों से अश्क चुराने लगे, 
एक दूसरे में ख़ुशियांँ ढूँढ़ने लगे, 
एक दूसरे का जीवन महकने लगा, 
चेतना ने बयाँ किया है मोहब्बत की दास्तान को, 
मैंने जिसे चाहा पाया उसी को, 
आप भी! जिसे चाहो! पाओ उसी को। 

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