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माँ होती है अन्तर्यामी

इस बात को मैंने महसूस किया है कि माँ अन्तर्यामी ही होती है। बात उन दिनों की है जब मैं महिला कल्याण निगम के श्रमजीवी महिला आवास लखनऊ में बतौर सुपरिंटेंडेंट कार्यरत थी। छोटी उम्र में बड़ी ज़िम्मेदारी निभाने वाला पद मुझे सँभालना पड़ रहा था। इस होस्टल में डॉक्टर, इंजीनियर आदि उच्च पदों पर आसीन लड़कियाँ प्रवास करतीं थीं। उनमें से कुछ मुझसे उम्र मे भी बड़ी थीं। क़रीबन 600 युवतियों को सँभालने की ज़िम्मेदारी मुझपर थी उनमें से ज़्यादातर अविवाहित लड़कियाँ थीं। मैं अपनी कठिन ज़िम्मेदारी को कम उम्र के बाबजूद सफलता पूर्वक मैं निभा रही थी।

उन दिनों में नवविवाहिता भी थी अतः मुझे अपनी विधवा माँ से बिछड़े ज़्यादा लंबा समय भी नहीं हुआ था। पिताजी का देहाँत मेरे विवाह के डेढ़ साल पूर्व ही हो गया था अतः माँ ही हम सब बच्चों का सहारा थी।

हॉस्टल में मुझे आवास मिला हुआ था जहाँ मैं अपने पति के साथ ही रहती थी, एवं कई सहायक भी सरकार की तरफ़ से मिले हुए थे।

उन्हीं दिनों जब मैं माँ बनने वाली थी व मेरे प्रसव को थोड़ा समय ही बचा था, तभी अचानक मैं एक गंभीर बीमारी का शिकार हो गई। जैसे ही टेस्ट में बीमारी की रिपोर्ट पॉज़िटिव आई, मेरे पति घबराते हुए रिपोर्ट लेकर आए और मुझे हिम्मत बँधाते हुए बोले कि घबराना नहीं ठीक हो जाओगी। मैं कुछ दिन पहले से ही शारीरिक पीड़ा से परेशान थी ऊपर से जैसे ही गंभीर बीमारी की जानकारी मिली कि मैं घबरा कर ज़ोर-ज़ोर से रोती हुई किसी शिशु की भाँति बस अम्मा-अम्मा एक ही रट लगाकर रोने-चिल्लाने लगी थी कि, मुझे अम्मा के पास जाना है... मेरी अम्मा को बुला दो... अम्मा... अम्मा... मेरी अम्मा...आ जाओ... और किसी की कोई बात नहीं सुन रही थी। 

सहसा सारा जहां ही भूल गई थी मैं जबकि मुझे अपनी जान से ज़्यादा प्यार करने वाले मेरे पति मेरे साए की तरह तन-मन-धन मुझ पर निछावर करते हुए मेरे साथ रहते थे और मुझे बेइंतहा प्यार देते थे, बड़ा ख़याल रखते थे। 

लखनऊ में रहने वाली मेरी जीजी व जीजा भी मेरी बीमारी की ख़बर सुनकर तुरंत हॉस्टल आ गए थे, मुझे हौसला दे रहे थे, दुलरा रहे थे। मेरे हॉस्टल की सारी लड़कियाँ जो कि सैकड़ों की संख्या में थीं एवं सारा स्टाफ़ आया। चपरासी, सिक्योरिटी, असिस्टेंट वार्डन आदि मेरे रोना सुनकर मेरे समीप दौड़ते हुए आ गए, और मुझे समझा रहे थे। लड़कियाँ सब सेवा करने जुट गयी थीं, लेकिन उस समय मैं यह भी भूल गई थी कि यहाँ पर मैं एक अधिकारी के पद पर हूँ। जहाँ मुझसे मिलने के लिए लोग अपॉइंटमेंट लेकर ही मिल पाते थे, जहाँ हमेशा हॉस्टल की लड़कियों के सामने अनुशासन बनाए रखने के लिए काफ़ी रौब, सख़्ती और गंभीरता की डीलिंग करनी पड़ती थी। इतनी सारी युवा लड़कियों को जो कि कई मुझसे आयु में बड़ी थीं, जिनको कंट्रोल करने व सँभालने की ज़िम्मेदारी मेरे सर पर थी, उस जगह पर, उन सबके सामने मैं किसी छोटे शिशु की भाँति अम्मा-अम्मा चिल्ला कर ज़मीन पर बैठकर सर पकड़कर रो रही थी।

उन दिनों मोबाइल युग नहीं था जो अम्मा को तुरंत सूचना दी जाती। 300 किमी दूर नेपाल बार्डर पर लखीमपुर ज़िले में मेरा गाँव था; वहाँ पर तब टेलीफोन भी नहीं था। वहाँ से 20 किलोमीटर दूर क़स्बे में पीसीओ हुआ करता था।

पति ने मुझे समझाया अभी रात है कल तुम्हारे घर ख़बर कर देंगे। अम्मा जी आ जाएँगी~, लेकिन मैं कहाँ सुनने वाली थी। बस एक ही रट लगाई थी मुझे अभी ले चलो मेरे घर नहीं तो मेरी अम्मा को तुरंत बुला दो... बस लगतार रोये ही जा रही थी। किसी की कोई बात नहीं सुनाई दे रही थी।

बस केवल अम्मा की ममतामयी छवि के सिवा कुछ न दिख रहा था...।

लेकिन सच कहती हूँ कि माँ तो अंतर्यामी होती है। रात के 10:00 बजे अचानक मेरी अम्मा सामने आकर खड़ी हो गई। मैंने समझा कि शायद सपना देख रही हूँ अम्मा तुरन्त कैसे आ सकती हैं वो भी 300 किलोमीटर से!

तभी अम्मा बोली... कि न जाने क्यूँ आज सुबह से मेरा मन नहीं लग रहा था... कि बिटिया तुम कहीं परेशान तो नहीं? मेरा जी घबरा रहा था, इसलिए मैं अकेली चल पड़ी।

बस फिर क्या था, अपनी प्यारी  अम्मा को देखते ही मेरा हाल ऐसा था जैसे मरने वाले को ज़िन्दगी मिल गयी हो; जैसे प्यासे को सावन मिल गया हो; जैसे गईया से उसका बछड़ा मिल गया हो!

अम्मा को देखते ही मैं चिपक कर रोने लगी, मेरा सारा दर्द, डर घबराहट सब पता नही कहाँ चला गया। फिर उन्होंने मेरी उसी तरह से दिन रात सेवा व केयर की जैसे कभी बचपन में पाला-पोसा होगा।

मेरे स्वस्थ होने तक मेरी प्यारी अम्मा मेरे पास रुकीं रही व सफलतापूर्वक प्रसव कराकर, नाती को गोद में खिला कर ही वापस घर गई।

अब तो प्यारी अम्मा की यादें ही शेष हैं, मगर फिर भी जब कभी हद से भी ज़्यादा परेशान होती हूँ तब अम्मा-अम्मा कह कर रोने लगती हूँ,लगता है वही आकर मेरा सर सहलाकर  मेरे आँसू पोंछती हैं और मुझे सँभाल लेती हैं।

सच कहती हूँ, माँ अंतर्यामी ही होती है!

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