अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

निर्दयी रिवाज़ 

ख़ूबसूरत पुलिस ऑफ़िसर सुनयना ने आज वर्षों बाद जैसे ही सुनील को उसकी पत्नी के हाथ में हाथ डाले देखा तो अपने निर्दयी अतीत को याद कर अत्यंत क्रोधित सी हो गयी। 

आठ वर्ष पूर्व अपने प्रियतम सुनील से शादी के कार्ड को देखकर सुनयना ख़ुशी से नाच रही थी, कॉलेज के सहपाठी व सुनयना पर दिलोज़ान से फ़िदा सुनील के साथ उसका विवाह जो हो रहा था . . . जन्म-जन्म साथ निभाने के वादे जो पूरे होने को थे। 

आज वह शुभ दिन आ ही गया फरवरी की चौबीस तारीख़ सुनयना व सुनील के जीवन के सबसे बेहतरीन नए बसन्त को लाने वाली थी।” बारात आ गयी” मन ही मन ख़ुशी से फूली न समा रही सुनयना को एक एक पल काटना मुश्किल पड़ रहा था। 

जयमाला की रस्म हर्षपूर्वक सम्पन्न हो गयी थी, अब जन्म-जन्म निभाने को सात फेरों के बंधन की बारी आ गयी, तभी सुनील के पिता नारायण दत्त जी ने सुनयना के पिता रवि दत्त जी से कोने में ले जाकर कहा, “देखिये जी वो दहेज़ के वादे के अनुसार आप अभी भी पाँच लाख रुपये पूरे नहीं कर पाए। अतः पैसे पूरे कर दीजिए तभी फेरे पड़ेगें।”

सुनयना के पिता हाथ जोड़ने लगे उनके पैर गिर गए, “समधी जी आगे एक-एक पैसा चुका दूँगा अभी किसी तरह शुभ कार्य सम्पन्न हो जाने दीजिए मेरी इज़्ज़त का सवाल है।” 

लेकिन सुनील के पिता ने अत्यंत निर्दयता से कठोरतापूर्वक फेरे की रस्म को तब तक मना कर दिया जब तक दहेज़ की रक़म पूरी न मिलेगी, वह सोच रहे थे कि ये लोग इज़्ज़त जाने के डर से कैसे भी पूरा पैसा देंगे ही देंगे। इनकी लड़की जो फँसी है मेरे बेटे की दीवानी . . . 

तभी अचानक सुनयना ने अपने भावी ससुर के समक्ष पिता को रोते गिड़गिड़ाते देख लिया, वह तुरन्त वहाँ आ गयी और दोस्तों में घिरे सुनील को बुलाने का इशारा किया। सारी स्थिति जानने पर सुनयना ने सुनील से ये शिकायत की कि अपने पिता को समझाइए। परन्तु सुनील ने अपने पिता का विरोध करने से मना कर दिया और कहा कि मैं उनकी मर्ज़ी के बग़ैर विवाह कैसे कर सकता हूँ। 

बस फिर क्या था सुनयना के अंदर की मासूम प्रेमिका मर गयी और बन गयी महाकाली। तुरन्त ही स्वार्थी सुनील व उसके लालची पिता को पूरी भीड़ के आगे फटकार लगाकर कहा कि मैं इस निर्दयी रिवाज़ का खंडन करती हूँ और तुम जैसे घटिया प्रेमी का परित्याग। उसने पुलिस के हवाले करने की धमकी दी, तब पुलिस के डर से वे लोग माफ़ी माँगने लगे व विवाह को तैयार भी हो गए, परन्तु स्वाभिमानी सुनयना ने उन्हें पुलिस के ज़िम्मे तो नहीं किया लेकिन विवाह करने से स्वयं इनकार कर बेइज़्ज़त करके भगा दिया। 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

105 नम्बर
|

‘105’! इस कॉलोनी में सब्ज़ी बेचते…

अँगूठे की छाप
|

सुबह छोटी बहन का फ़ोन आया। परेशान थी। घण्टा-भर…

अँधेरा
|

डॉक्टर की पर्ची दुकानदार को थमा कर भी चच्ची…

अंजुम जी
|

अवसाद कब किसे, क्यों, किस वज़ह से अपना शिकार…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता

किशोर साहित्य कविता

स्मृति लेख

लघुकथा

हास्य-व्यंग्य कविता

दोहे

कविता-मुक्तक

गीत-नवगीत

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं