होली के रंगों जैसी
कथा साहित्य | लघुकथा सुषमा दीक्षित शुक्ला1 Apr 2021 (अंक: 178, प्रथम, 2021 में प्रकाशित)
इस बार की होली नई नवेली दुल्हन हीरा के लिए अद्भुत एहसास लेकर आई थी, क्योंकि यह उसके ब्याह के बाद की पहली होली थी। अभी-अभी नया घर-संसार, नया परिवार मिला था, नये लोगों के साथ त्यौहार मनाना था ।
यूँ तो प्रायः लड़कियाँ शादी के बाद पहली होली अपने नैहर में ही मनाती हैं, मगर हीरा की ससुराल के रिवाज़ के मुताबिक़ बहू को पहली होली ससुराल में ही करनी थी ।
अतः वह मन में कुछ उदासी छिपाए ख़ुद को ख़ुश दिखाने की कोशिश के साथ होली की तैयारी करती सासू माँ के काम में हाथ बटाने लगी।
उसे अपने माँ, पिता, भाई व सखियों की याद तो आ ही रही थी।
तभी अचानक उसकी सास सुनहरे रंग का जड़ाऊ लहँगा चुनरी लेकर आँगन में आयीं और हीरा के पति को आवाज़ देते हुए बोली, “बेटा बहूरानी को होली में मायके घुमा ला। लड़की को शादी के बाद शुरुआत के त्यौहार अपने मायके में ही अच्छे लगते हैं। नए घर में धीरे-धीरे ही घुल मिल पाती है। जा बेटी जा मैं यह लहँगा लाई थी कल तेरी होली पर पहनने के लिए, इसे पहन कर चली जा नैहर।”
हीरा की आँखों में अपनी सासू माँ के प्रति आस्था और अथाह श्रद्धा के आँसू उमड़ पड़े ।
गुलाबी रंग की साड़ी में बेहद ख़ूबसूरत लग रही हीरा बोली, “नहीं माँ जी मुझे आप लोगों के साथ ही होली मनानी है; मायके में तो मैंने हमेशा ही होली मनाई है। फिर जिसके पास आप जैसी सासू माँ हो उसके लिए तो हर रोज़ ही होली और दिवाली हैं।”
हीरा के मुँह से ऐसे बोल सुनते ही उसके पति की तो मानो मुराद ही पूरी हो गई हो। पति से नज़र मिलते ही हीरा शर्म से लाल हो गयी . . . होली के रंगों जैसी!
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