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प्रीति अग्रवाल 'अनुजा' – 004

1.
ग़लीचे पे
काग़ज़ के,
क़लम हाथ थामे . . .
मैं उड़ने लगी
आसमानों में नीले!

2.
ख़ुशक़िस्मत
पतंग-सी
बेपरवाह चली,
जबसे है डोर
तेरे हाथों थमी . . .!

3.
ख़ुशी
आती,
खटखटाती,
लौट जाती . . .
मैंने ख़ुद को
ख़ुश होने की
इजाज़त न दी थी . . .।

4.
क़ुसूर
किसका था कम
और किसका ज़्यादा,
बेकार है बहस
कभी ख़त्म न होगी . . .।

5.
खाईं क़समें बहुत
जीने-मरने की संग,
कभी बिछड़ेंगे
ये,
ज़िक्र आया ही नहीं . . .!

6.
दीवाने हुए जब
तभी जान पाए,
बेख़ुदी
ज़िन्दगी में
बहुत है ज़रूरी . . .!

7.
जो मिले हैं दोबारा
कहो क्या करें?
नए वादे . . .?
या
अधूरों को पूरा करें . . .?

8.
सब जानते हैं जिसको
वो तो, कोई और है . . .
बस तुम्हारे आगे
मैं,
मैं हो जाती हूँ।

9.
अब भी रड़कते हैं
आँखों में
नून के वो कण,
जिन्हें
आँसू बन बहने की
इजाज़त न थी . . .।

10.
सागर की मौज
ऐसी कश्ती को भायी
बेख़बर ,
किनारे से
कितनी दूर चली आई . . .।

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