परी
काव्य साहित्य | कविता प्रीति अग्रवाल 'अनुजा'1 Aug 2021 (अंक: 186, प्रथम, 2021 में प्रकाशित)
कई बार मन में
है आता यही,
मुझे कुछ समझ में
क्यों आता नहीं . . .
खुलकर यहाँ लोग
मिलते नहीं,
न हँसते ही हैं
और हँसाते नहीं . . .
मुखोटों के पीछे
छुपे है सभी,
क्यों, झूठ से दामन
छुड़ाते नहीं . . .
मंज़िलों पर हैं
निगाहें टिकी,
क्यों, मील का पत्थर
सराहते नहीं . . .
हार जीत का ये
अजब खेल है,
दौड़े फिरते हैं सब
ठहर पाते नहीं...
आता है मन में
यही बार बार,
मैं यहाँ पर तो हूँ
पर यहाँ की नहीं . . .
कहीं मैं कोई
परी तो नहीं . . .
कहीं मैं कोई
परी तो नहीं . . . !!
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