बेघर
कथा साहित्य | लघुकथा प्रीति अग्रवाल 'अनुजा'1 May 2024 (अंक: 252, प्रथम, 2024 में प्रकाशित)
बात वही थी, पर न जाने क्यों पीड़ा हर बार नई-सी देती थी।
‘मैं ऐसा ही हूँ, रहना हो तो रहो, नहीं तो अपने घर चली जाओ।’
इस एक वाक्य के आगे रीता के सभी तर्क-वितर्क, निवेदन, धूल हो जाते। उसकी छोटी-छोटी इच्छाएँ उसके सामने छटपटा कर दम तोड़ देतीं और वो, बेबस, कुछ न कर पाती।
इन्हीं शब्दों की गूँज में मिल जाते माँ के शब्द, ‘आज से वही तेरा घर है, हँसती खेलती सौ बार आना, पर पति से झगड़ कर कभी नहीं . . .’
जाली के दरवाज़े के पार एक बेसहारा अपने परिवार के साथ खड़ी करुण स्वर में गुहार लगा रही थी, “अरे! कोई मदद कर दो . . . बाढ़ में सब उजड़ गया . . . हम बेघर हो गए . . .।”
रीता ने बटुए से 20रु. का नोट निकाला, फिर कुछ सोच कर उसकी ओर 100 रु. का नोट बढ़ा दिया।
बेघर होने का दर्द, वो जानती थी!
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विजय विक्रान्त 2024/05/01 01:42 AM
बहुत सुन्दर।