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हक़ीक़त

आशा देवी के घर पोता हुआ था। दोनों बेटियाँ बधाई देने आएँगी, उन्हें उपहार में कपड़ा-लत्ता देना होगा, यही सोच कर अपना सन्दूक खोले बैठी थीं। 

तभी पड़ोस से उनकी सखी अपनी पोती चुनमुन का हाथ पकड़े आ पहुँची। 

एक से भले दो, सो दोनों मिलकर साड़ियाँ छाँटने लगीं। हर बार यही बात होती कि बड़ी तो सीधी है, जो दे दो ख़ुश होकर ले लेती है, पर छोटी थोड़ी नखरेलिया है, उसे जल्दी से कुछ पसन्द नहीं आता। 

इसी तरह बोलते बतियाते, ए-ग्रेड माल छोटी को और बी-ग्रेड बड़ी को बँटता चला गया। 

घर आकर चुनमुन अपनी गुड़िया से खेलने लगी, फिर ठिठक कर बोली, “दादी, बड़ी दीदी तो ज़्यादा अच्छी है ना, फिर सारी अच्छी चीज़ें छोटी दीदी को क्यों मिली . . . ”

दादी गहरी साँस लेकर बोली, “अब क्या बताऊँ बिट्टो, बस यूँ समझ कि जो दरवाज़ा ज़्यादा चर्राता है ना, पहले तेल उसी को मिलता है . . .!”

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