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वो शख़्स

पहेली नहीं हूँ, सहेली हूँ मैं
ज़िन्दगी हूँ
हर पल नवेली हूँ मैं, 
मुझे सूझते, बूझते जो रहे
तो पानी ढलकती
हथेली हूँ मैं, 
इक बार मिलूँगी, दोबारा नहीं
ज़ाया मुझे
यूँही करना नहीं, 
ज़िन्दगी हूँ, बड़ी अनमोल हूँ मैं
न मुझसा कोई
बेजोड़ हूँ मैं। 
 
कल का मुझे भी, नहीं है पता
न सोच में उसकी
तू ख़ुद को सता, 
कल किसने देखा, वो इक ख़्वाब है
जो है आज है
बाक़ी बेकार है, 
जो मन में तेरे है, तू वो कर गुज़र
चंद घड़ियाँ यहीं
तू यूँ कर बसर
कि हैरान हों और सभी ये कहें—
क्या ख़ूब था वो शख़्स
कितना ज़िंदा था वो
जिससे माँगती थी ख़ुद
ज़िन्दगी, ज़िन्दगी . . .
 
जिससे माँगती थी ख़ुद ज़िन्दगी
ज़िन्दगी! 

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