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प्रीति अग्रवाल ’अनुजा’ – 010

1. 
सोचती हूँ, 
इतने बरसों तक, 
तुमने मेरी मुस्कुराती छवि को
अपने हृदय में
कैसे सम्भाल कर रखा होगा . . . 
इतने बरसों में, 
मैं तो ख़ुद को ही
न जाने कहाँ
रखकर भूल गई . . .! 
 
2. 
लगता है, कल रात
तुम फिर रोयी थी . . . 
तुम्हें कैसे पता . . . 
सुबह उठा, तो
मेरे कुर्ते का बायाँ कँधा
कुछ सीला सा था . . . 
हाँ, मैं उसी तरफ़ सोती थी! 
 
3. 
बिखरते हैं, 
समेटती हूँ . . . 
फिर बिखरते है, 
फिर समेटती हूँ . . . 
रोज़ इतनी मेहनत
क्यों करती हूँ . . .? 
सपनें हैं, 
ऐसे कैसे छोड़ दूँ! 
 
4. 
कई बार
राह पलटकर देख ली, 
कुछ दुखते हुए पल
रूबरू हो ही जाते हैं . . .
ये, 
हम दोनों की
पुरानी आदत है। 
 
5.
जाने क्यों
हर वक़्त
कारण ढूँढ़ते हैं, 
पहले भी तो
बेवक़्त, 
बेबात, 
बेहिसाब
हँसा करते थे . . .! 
 
6. 
मैं कहती रही
तुमने सुना ही नहीं, 
कहने सुनने को अब
कुछ रहा ही नहीं . . . 
 
7.
कभी मौक़ा, 
तो कभी अल्फ़ाज़, 
ढूँढ़ती रह गयी . . . 
मेरे दिल की
मेरे
दिल में ही रह गई। 
 
8. 
मुसाफ़िरी की हमको
है आदत पड़ी . . . 
हर वक़्त पुकारे
है मंज़िल नयी! 
 
9. 
अल्हड़ नदी
राह पथरीली, 
छिलती
दुखती
किसी से
कुछ न कहती, 
मीठी की मीठी . . . 
कुछ कुछ, 
मुझ सी . . .! 
 
10.
राहें, 
दोराहें, 
चौराहें बनी
राहगीर बँटते गए . . . 
ज़िन्दगी चलती रही . . .! 

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