क़िस्मत वाली
कथा साहित्य | लघुकथा प्रीति अग्रवाल 'अनुजा'15 Feb 2023 (अंक: 223, द्वितीय, 2023 में प्रकाशित)
दोपहर के खाने का समय हो चला था सो अरुणा जी ने अपनी सखी सुनीता को ज़िद करके खाने के लिए रोक लिया।
दोनों खाने बैठती, इससे पहले अरुणा जी ने एक और थाली सजाकर रसोई के कोने में ढक कर रख दी। उसमें दाल, चावल, सब्ज़ी, रोटी, सब थे—और एक टुकड़ा मिठाई का भी!
दोनों सखियाँ खाना खाकर गप-शप मारने बैठीं तो सुनीता जी बोलीं, “अरुणा, तुम्हारी कामवाली बड़ी क़िस्मत वाली है, तुम उसका ख़ूब ख़्याल रखती हो।”
अरुणा जी लंबी, गहरी साँस लेकर बोली, “दरअसल सुनीता, क़िस्मतवाली वो नहीं, मैं हूँ। वही है, जो वो मेरे बनाए खाने को बड़े चाव से भरपेट खाती है, वरना घर के बाक़ी सब तो मीन-मेख ही निकालते रहते हैं। खाने में पौष्टिक तत्त्व कम और ‘कैलोरी’ अधिक गिनवाते हैं। रोज़ किसी न किसी नई ‘डाइट’ पर होते हैं, आज चावल और केला बंद, तो कल रोटी और घी। बाज़ार का अड़ंगा खाकर राज़ी हैं पर घर का ताज़ा खाना नहीं!
मेरा बनाया खाना कोई पसन्द कर के नहीं खाता, प्रशंसा करनी तो दूर की बात है।
“कम से कम इसे खिलाकर मुझे साथ भी मिल जाता है और मन की हूक भी थोड़ी कम हो जाती है . . .”
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