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एक कहानी

एक कहानी है
जाने क्यों
दुखती सी रहती है, 
रुक रुक के सही
कुछ तो ज़रूर कहती है . . . 
 
उसे मुझसे 
कोई उम्मीद है शायद . . . 
एक ऐसे मोड़ की
जहाँ से 
उसका रुख़ बदल जाए, 
उसके मुक़द्दर का
शायद ताला खुल जाए, 
जहाँ 
वह मेरे बिना
चाह कर भी
पहुँच न पाए . . .
 
पर मैं, 
कभी मर्ज़ी 
तो कभी बिन मर्ज़ी 
उन्हीं अपेक्षित राहों पर
चलती रही, 
वो कहानी 
ऊब कर
एक कोने में 
सिमटती गयी . . . 
 
मेरा हर क़दम 
उसमें अरमां जगाता
'एक बार तो नई राह चुन'
फुसफुसाता, 
मैं हिचकिचाती
आदत नहीं थी, सो
कुछ नया करने का हौसला
कहाँ से पाती . . . 
 
एक दिन 
दिल के कोने से
सुबकने की आवाज़ आई
हौली सी, दबी सी
मगर आई . . .
मेरे झाँकने पर वह कहानी
मुखौटा लगा मुस्कुराने लगी, 
पर जाने क्या था उन आँखों में
उनमें बसा शून्य
मेरा ज़ेहन काटता रहा, 
'बुज़दिल मत बन'
मन डाँटता रहा . . .
 
मुझसे पहले
मेरी कहानी दम तोड़ दे
ये मुझे गवारा न हुआ . . . 
 
सो 
चल पड़े हैं दोनों
मैं और मेरी कहानी
गलबहियाँ डाले . . . 
अब 
हम अलग नहीं हैं
अकेले नहीं है
और वह मोड़ भी
दूर नहीं है . . .
 
सपनों से हक़ीक़त तक का यह सफ़र
अब, 
ख़ूब कटेगा! 

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